SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 289 आत्मा अज्ञानभाव से मिथ्यात्व के परिणामों को भी करे और जड़कर्म की पर्याय को भी करे ऐसी वस्तुस्वरूप की मर्यादा ही नहीं है। इसीप्रकार जड़कर्म अपने जड़कर्म की पर्याय को भी करे और जीव के मिथ्यात्व को भी करे - ऐसी सामर्थ्य भी वस्तु में नहीं है। एक द्रव्य से दूसरा द्रव्य अत्यन्त भिन्न है और भिन्न-भिन्न दो द्रव्यों में कर्ता-कर्मपना नहीं होता । - गाथा १४४ लौकिकजन ऐसा मानते हैं कि जड़ का कार्य जीव कर सकता है, परन्तु उनका ऐसा मानना भ्रम है। तन-मन-वचन, धन-दौलत आदि सब पुद्गल हैं। आत्मा इन सबसे अत्यन्त भिन्न है, इसकारण जड़ - पुद्गल की अवस्था का आत्मा कर्त्ता नहीं है। धन-दौलत कमाना, मकान बनाना आदि कार्य आत्मा के नहीं हैं। हाँ, अज्ञानी द्वारा राग-द्वेष व मिथ्यात्व आदि के जो अज्ञानभाव होते हैं, उन्हें अज्ञानी ने किये - ऐसा कहा जाता है। अब आचार्य कहते हैं कि ज्ञाता सदा ज्ञाता में ही है और कर्म सदा कर्म में ही है। जब पर के कर्तृत्व की बुद्धि छूट जाती है, तब मैं ज्ञायक हूँ - ऐसे ज्ञातापने की दृष्टि खिल जाती है। पहले यह सिद्ध किया कि जड़कर्म में आत्मा नहीं है और आत्मा के अशुद्ध परिणाम में जड़कर्म नहीं है। फिर बात बदलकर यह कहा कि भगवान आत्मा चिद्रूप है, ज्ञायकरूप है, आनन्दस्वरूप है, ईश्वर है, अपरिमित भावरूप है। उसके स्वभाव की शक्ति बेहद अपरिमित है - ऐसा ज्ञाता सदा ज्ञातास्वभाव में ही रहता है । उसी में अन्तर्दृष्टि करने का नाम सम्यग्दर्शन है, धर्म है। सम्यग्दर्शन प्राप्त करने में पर की किसी प्रकार की सहायता की अपेक्षा नहीं है, व्यवहार की भी अपेक्षा नहीं है। ऐसी वस्तु की मर्यादा प्रगट है; तथापि जीवन के नेपथ्य में यह मोह इतने वेग से क्यों नाच रहा है। आचार्यदेव को स्वयं इसका आश्चर्य है । ४१ १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३९३ २. वही, पृष्ठ ३९४ ३. वही, पृष्ठ ३९५ ४. वही, पृष्ठ ३९५-३९६
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy