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________________ समयसार गाथा ८ यदि चारों ही प्रकार के व्यवहारनय हेय हैं, निषेध करने योग्य हैं; तो फिर एक निश्चय का ही कथन करना चाहिए था, व्यवहार का कथन ही क्यों किया? – इस प्रश्न के उत्तर में आठवीं गाथा का जन्म हुआ है; जो इसप्रकार है - जह ण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विना दु गाहेदुं । तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ॥८॥ ( हरिगीत ) अनार्य भाषा के बिना समझा सके न अनार्य को । बस त्योंहि समझा सके ना व्यवहार बिन परमार्थ को ॥८॥ जिसप्रकार अनार्य (म्लेच्छ) भाषा के बिना अनार्य (म्लेच्छ) जन को कुछ भी समझाना संभव नहीं है; उसीप्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ (निश्चय) का कथन अशक्य है। उक्त गाथा का भाव स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने जो टीका लिखी है, उसका भाव इसप्रकार है - "स्वस्ति शब्द से अपरिचित किसी म्लेच्छ (अनपढ़) को यदि कोई ब्राह्मण (पढ़ा-लिखा व्यक्ति) 'स्वस्ति' ऐसा कहकर आशीर्वाद दे, तो वह म्लेच्छ उसकी ओर मेंढे की भांति आँखें फाड़-फाड़कर, टकटकी लगाकर देखता ही रहता है। क्योंकि वह 'स्वस्ति' शब्द के वाच्य-वाचक सम्बन्ध से पूर्णतः अपरिचित होता है। पर जब दोनों की भाषा को जाननेवाला कोई अन्य व्यक्ति या वही ब्राह्मण म्लेच्छ भाषा में उसे समझाता है कि स्वस्ति शब्द का अर्थ यह है कि तुम्हारा अविनाशी कल्याण हो; तब उसका भाव समझ में आ जाने से उसका चित्त आनन्दित हो जाता है, उसकी आँखों में आनन्द के अश्रु आ जाते हैं।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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