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________________ 80 समयसार अनुशीलन इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए यहाँ कहा गया है कि यद्यपि पर्याय वस्तु का ही भेद है, अवस्तु नहीं, परवस्तु नहीं; तथापि यहाँ पर्यायदृष्टि छुड़ाकर द्रव्यदृष्टि कराने का प्रयोजन होने से अभेद को मुख्य करके उपदेश दिया गया है । भेद को गौण करने पर ही अभेद भली-भाँति प्रतिभासित होता है; इसलिए यहाँ भेद को गौण किया गया है। ध्यान रहे, यहाँ भेद को (भेदरूप व्यवहार को) गौण किया गया है, उसका अभाव नहीं किया गया है। यहाँ अभिप्राय यह है कि भेददृष्टि में निर्विकल्पदशा नहीं होती, सम्यग्दर्शन नहीं होता; अपितु राग ही उत्पन्न होता है। अनन्तगुणात्मक, अनन्तधर्मात्मक भगवान आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रभुता, स्वच्छता आदि अनन्त गुणों को लक्ष्य में लेने पर राग ही उत्पन्न होता है। नवतत्त्वों के भेद की बात तो दूर ही रहो, यदि गुण गुणी का भेद भी खड़ा होगा तो निर्विकल्पदशा नहीं होगी । वस्तु और उसकी शक्तियाँ - ऐसा भेद भी दृष्टि का विषय नहीं बनता । दृष्टि का विषय तो अभेद, अखण्ड, एक ज्ञायकभाव ही है । दृष्टि स्वयं पर्याय है, वह भी दृष्टि के विषय में नहीं आती, वह भी ध्यान का ध्येय नहीं बनती। प्रश्न - वर्तमान पर्याय को दृष्टि के विषय में मिलाना कि नहीं ? उत्तर – वर्तमान पर्याय तो भिन्न रहकर द्रव्य की प्रतीति करती है, वह उसमें कैसे मिल सकती है? पर्याय अभेद अखण्ड द्रव्य की ओर ढलती है - इस अपेक्षा अभेद कही जाती है, पर वह दृष्टि के विषय में शामिल नहीं होती। वह तो भिन्न रहकर द्रव्य को विषय बनाती है । — निर्मलपर्याय भी बहिर्तत्त्व है, अंतस्तत्त्व नहीं है । उसे भी गौण करके द्रव्यस्वभाव का आश्रय लेने पर निर्विकल्प अनुभव होता है और वही धर्म है । यदि कोई कहे कि अशुद्धता (अशुद्धपर्याय) से छूटने की बात तो करते हो, पर शुद्धता (शुद्धपर्याय) से छूटने की बात क्यों नहीं करते?
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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