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________________ समयसार अनुशीलन "" आचार्य आगम के सेवन, युक्ति के अवलम्बन, पर और अपर गुरु के उपदेश और स्वसंवेदन इन चार प्रकार से उत्पन्न हुए अपने ज्ञानवैभव से एकत्व - विभक्त शुद्ध आत्मा का स्वरूप दिखाते हैं । हे श्रोताओ ! उसे अपने स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रमाण करो; यदि कहीं किसी प्रकरण में भूल जाऊँ तो उतने से दोष को ग्रहण नहीं करना । कहने का आशय यह है कि यहाँ अपना अनुभव प्रधान है, उससे शुद्धस्वरूप का अनुभव करो। " 54 - यहाँ आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने तो मात्र इतना ही कहा था कि मैं निजवैभव से एकत्व-विभक्त आत्मा की बात समझाऊँगा; पर आचार्य अमृतचन्द्रदेव यह भी स्पष्ट करते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द का वैभव क्या था, कैसा था और कैसे उत्पन्न हुआ था ? अतः जगत तो रुपया-पैसा और धूल-मिट्टी को ही वैभव मानता है । वे स्पष्ट करते हैं कि उनका वैभव ज्ञानवैभव था, वह ज्ञानवैभव मुक्तिमार्ग के प्रतिपादन में पूर्णत: समर्थ था और उसका जन्म आगम के सेवन से हुआ था, युक्ति के अवलम्बन से हुआ था, परम्पराचार्य गुरुओं के उपदेश से हुआ था और आत्मा के अनुभव से हुआ था । तात्पर्य यह है कि उन्होंने जो बात कही है, वह काल्पनिक नहीं है; उसका आधार जिनागम है, भगवान महावीर की दिव्यध्वनि है । जिनागम का गहरा अभ्यास करके ही उन्होंने यह बात जानी है, समझी है । अत: उनका यह समयसार ग्रन्थाधिराज भगवान महावीर की दिव्यध्वनि का सार द्वादशांग जिनवाणी का सार है । यह भगवान आत्मा का प्रतिपादन जिनागम के अनुसार तो है ही, पर इसे मात्र पढ़कर नहीं लिखा गया है, पहले तर्क की कसौटी पर कसकर परखा गया है, युक्तियों के अवलम्बन से उसकी सच्चाई को गहराई से जाना गया है; इतना ही नहीं, भगवान महावीर से लेकर आचार्य कुन्दकुन्द तक चली आई अविच्छिन्न आचार्य परम्परा से
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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