SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 49 गाथा ४ सुनी, न परिचय किया और न अनुभव किया; इसकारण उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं, दुर्लभ है।" अनादिकाल से यह आत्मा पंचेन्द्रिय के विषयों में सुख मानता हुआ उन्हीं के संग्रह और भोगने में मग्न है । पुण्योदय से या कालक्रमानुसार मनुष्य पर्याय पाकर भी अनादि अभ्यास के कारण यह पंचेन्द्रियों के विषयों को ही जोड़ने और भोगने में लगा रहता है। धर्म के नाम पर भी जिन भावों से पुण्य-पाप बंधता है, उन भावों का ही विचार करता है, चर्चा-वार्ता करता है, गुणस्थानादि की चर्चा करके या कुछ बाह्याचार पालकर अपने को धर्मात्मा मान लेता है। धर्म के नाम पर भी कर्मबंध की ही चर्चा करता है, 'पर' और रागादि से भिन्न निज भगवान आत्मा का विचार ही नहीं करता है। कर्मबंध की चर्चा तो करता है; पर कर्म से बंधने की बात तो बहुत दूर, कर्म ने तो आज तक आत्मा को छुआ ही नहीं - यह बात आज तक इसके कान में ही नहीं पड़ी है; पड़ी भी हो तो इसने उसपर ध्यान ही नहीं दिया है, विचार ही नहीं किया है। ___ एक तो यह एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा के बारे में स्वयं कुछ जानता नहीं है, दूसरे जो ज्ञानी धर्मात्माजन भगवान आत्मा के स्वरूप को भलीभाँति जानते हैं - उनकी सेवा नहीं करता, उनका समागम नहीं करता, उनसे कुछ सीखने-समझने की कोशिश नहीं करता; यदि आगे होकर भी वे कुछ सुनायें, समझायें तो यह उनकी बात पर ध्यान ही नहीं देता; इसलिए अनन्तकाल से संसार में भटक रहा है। ___ यहाँ आचार्यदेव ज्ञानियों के सत्समागम की प्रेरणा देते हुए कह रहे हैं कि भाई ! तू ज्ञानियों की सेवा कर, उनकी बात पर ध्यान दे। तुझे पता नहीं है कि भगवान आत्मा को नहीं पहिचानने से तेरी कैसी दुर्दशा हो रही है?
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy