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________________ समयसार गाथा ४ अब इस चौथी गाथा में यह स्पष्ट करते हैं कि काम, भोग एवं बंध की कथा तो सभी को सुलभ है, पर उस एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा की बात सभी को सहज सुलभ नहीं है, अपितु अत्यन्त दुर्लभ है । सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा । एयत्तस्सुबलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ॥४॥ ( हरिगीत ) सबकी सुनी अनुभूत परिचित भोग बंधन की कथा । पर से पृथक् एकत्व की उपलब्धि केवल सुलभ ना ॥४॥ काम, भोग और बंध की कथा तो सम्पूर्ण लोक ने खूब सुनी है, उसका परिचय भी प्राप्त किया है और उनका अनुभव भी किया है; अतः वह तो सर्वसुलभ ही है । परन्तु पर से भिन्न और अपने से अभिन्न भगवान आत्मा की कथा न कभी सुनी है, न उसका कभी परिचय प्राप्त किया है और न कभी उसका अनुभव ही किया है; अतः वह सुलभ नहीं है I यही कारण है कि आचार्यदेव उस असुलभ कथा को इस समयसार ग्रन्थाधिराज के माध्यम से सुलभ कराना चाहते हैं । यद्यपि लोक में काम और भोग शब्द लगभग एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, तथापि आचार्य जयसेन उक्त अर्थ को स्वीकार करते हुए भी अथवा कहकर 'काम' शब्द का अर्थ स्पर्शन और रसना इन्द्रिय का विषय करते हैं और 'भोग' शब्द का अर्थ घ्राण, चक्षु एवं कर्ण इन्द्रिय का विषय करते हैं । इसप्रकार काम - भोगकथा का अर्थ पंचेन्द्रिय विषयों की कथा हो जाता है ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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