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________________ 481 कलश ४५ जमकर, रमकर सम्यग्ज्ञानी होकर अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है, मनः पर्यायज्ञान को पा लेता है और उमंग के साथ परमावधि की भूमि को प्राप्त कर लेता है। इसीप्रकार वस्तुओं को पूर्ण रूप से जानते हुए केवलज्ञान को प्राप्तकर सम्पूर्ण पदार्थों को स्वयं में प्रतिविम्बित कर लेता है। अस्तु जो भी हो . . . दोनों ही अर्थों में भेदज्ञान की अनवरत प्रबल भावना के वेग की बात है। अत: प्रत्येक आत्मा को एकक्षेत्रावगाही जीव और अजीव के बीच ज्ञानरूपी करवत को, आरे को प्रबल वेग से निरन्तर चलाना चाहिए, भेदज्ञान की भावना अनवरत भाना चाहिए। भेदज्ञान की भावना आरंभ से अंततक भाने योग्य है। इसीलिए तो कहा है - ( अनुष्टभ् ) भावयेभेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया। तावद्यावत्पराच्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते ॥ (दोहा) भेदज्ञान भावो भविक नित ही अविरल धार। ज्ञान ज्ञान में ही जमें परभावों से पार ।। भेदज्ञान की भावना अखण्ड-प्रवाह से तबतक निरन्तर भानी चाहिए कि जबतक ज्ञान परभावों से छूटकर ज्ञान (आत्मा) में ही प्रतिष्ठित न हो जावे। बनारसीदास ने इस छन्द का भावानुवाद इसप्रकार किया है - "भेदग्यान तबलौं भलौ जब लौं मुकति न होइ। __परमज्योति परगट जहां तहां न विकलप कोइ॥२ भेदविज्ञान तबतक ठीक है कि जबतक मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो जाती। जब परमज्योति पूर्णतः प्रगट हो गई, तब तो फिर किसी भी प्रकार के विकल्प शेष नहीं रहते। १. समयसार कलश - १३० २. समयसार नाटक, संवर द्वार, छन्दः- ७
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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