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________________ 475 कलश ४३-४४ ( सवैया तेईसा ) चेतन जीव अजीव अचेतन, लच्छन-भेद उभै पद न्यारे । सम्यक्दृष्टि-उदोत विचच्छन, भिन्न लखै लखिमैं निरवारे । जे जगमांहि अनादि अखंडित, मोह महामद के मतवारे। ते जड़ चेतन एक कहैं, तिन्हकी फिरि टेक टरै नहि टारे॥ जीव चेतन है और अजीव अचेतन है - इसप्रकार दोनों में लक्षण भेद होने से दोनों न्यारे-न्यारे हैं । सम्यग्दृष्टि विचक्षण पुरुष हैं; अतः वे इन्हें भिन्न-भिन्न जानकर स्वयं को पर से जुदा कर लेते हैं। किन्तु जो लोग इस जगत में अनादिकालीन अखण्डित मिथ्यात्व के मद से पागल जैसे हो रहे हैं, वे जड़ और चेतन को एक कहते हैं, एक मानते हैं; उनकी टेक टाले नहीं टलती। तात्पर्य यह है कि वे पर में एकत्वबुद्धि को छोड़ ही नहीं पाते। ___ इस कलश में आश्चर्य और खेद व्यक्त करने के उपरान्त अगले कलश की भूमिका बांधते हुए आचार्य गद्य में लिखते हैं कि यदि मोह नाचता है तो नाचे, इससे हमें क्या प्रयोजन है; क्योंकि यह सम्पूर्ण नृत्य आखिर है तो पुद्गल का ही। यह नाचनेवाला मोह भी तो पुद्गल ही है। ( वसंततिलका) अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये, वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः। रागादि पुद्गलविकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ।। ४४ ॥ ( हरिगीत ) अरे काल अनादि से अविवेक के इस नृत्य में । बस एक पुद्गल नाचता चेतन नहीं इस कृत्य में। यह जीव तो पुद्गलमयी रागादि से भी भिन्न है। आनन्दमय चिद्भाव तो दृग-ज्ञानमय चैतन्य है ॥४४॥
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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