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________________ 467 गाथा ६८ ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि राग की रचना तो पर्याय में अपने विपरीत पुरुषार्थ से होती है; इसलिए राग का परिणमन स्वयं जीव का है, उसमें कर्म निमित्त है। कर्म निमित्त है अवश्य, किन्तु निमित्त से राग नहीं हुआ – यह भी एक सिद्धान्त है; किन्तु यहाँ दूसर सिद्धान्त की अपेक्षा से कहा है कि राग का कर्ता आत्मा नहीं है । आत्मा में अकर्ता नाम का एक गुण है, इसकारण राग करने का उसका स्वभाव ही नहीं है; इसलिए राग की रचना पुद्गल द्रव्य से होती है - ऐसा कहा है। पुद्गल कारण है तथा राग उसका कार्य है; क्योंकि वे दोनों अभिन्न हैं। यहाँ वस्तु के स्वभाव अर्थात् चिदानन्दस्वरूप भगवान आत्मा की दृष्टि कराना है। यहाँ जीव उसे कहा है कि जो अखण्ड अभेद एकरूप चैतन्यघनस्वरूप है । इस चैतन्यघनस्वरूप आत्मा की दृष्टि करने से ही सम्यग्दर्शन अर्थात् धर्म का प्रथम सोपान प्रगट होता है । ऐसे शुद्ध जीव की दृष्टि कराने के लिए यहाँ रंग, राग व भेद के भावों को पुद्गल की ही रचना है – ऐसा कहा है। ___ यहाँ तो आत्मद्रव्य का पूर्णस्वभाव बताना है; परन्तु जब पर्याय की बात हो, तब पर्याय में जीव स्वयं राग करता है और पुद्गल तो इसमें निमित्तमात्र है - ऐसा कहने में आता है। निमित्त से राग होता है - ऐसा नहीं है। विकार के परिणमन में परकारक की भी अपेक्षा नहीं है। इसप्रकार पंचास्तिकाय में पर्याय की अस्ति सिद्ध की है तथा जब राग होता है, तब निमित्त भी होता ही है - ऐसा प्रमाणज्ञान कराने के लिए राग स्वयं से होता है – ऐसा निश्चय का ज्ञान रखकर 'राग निमित्त से हुआ है' - ऐसा निमित्त का ज्ञान कराया जाता है। निश्चय को उड़ाकर निमित्त का ज्ञान नहीं कराया जाता। भाई! यहाँ तो प्रमाण व व्यवहार - दोनों को गौण किया है। भगवान आत्मा चैतन्यसूर्य है, १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३५८
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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