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________________ समयसार अनुशीलन सूक्ष्मपरसमयरूप परिणमित होता हुआ सराग सम्यग्दृष्टि होता है, और यदि शुभोपयोग से ही मोक्ष होता है - ऐसा एकान्त से मानता है तो स्थूलपरसमयरूप परिणाम से स्थूल परसमय होता हुआ अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होता है। " 38 उक्त कथन में मिथ्यादृष्टि को स्थूलपरसमय और सराग सम्यग्दृष्टि को सूक्ष्मपरसमय कहा है। इससे यह सहज ही फलित होता है कि वीतराग सम्यग्दृष्टि स्वसमय है । पंचास्तिकाय की गाथा १६५ से १६९ तक पाँच गाथाओं में शुभराग में धर्मबुद्धि का और शुभरागरूप परिणति का बड़ी ही निर्दयता से निषेध किया गया है। ऐसे जीवों को परसमय कहकर स्वसमय बनने की प्रेरणा दी गई है । समयसार की दूसरी गाथा की टीका में आचार्य जयसेन निश्चयरत्नत्रय से परिणत जीव को स्वसमय और निश्चयरत्नत्रय से रहित जीव को परसमय कहते हैं । हाँ, एक बात यह भी हो सकती है कि क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व की देशघाति प्रकृति सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्व के उदय में सम्यक्त्व में चल, मल और अगाढ़ दोष उत्पन्न होते रहते हैं; उन दोषों को ही यहाँ ' अज्ञानलव' शब्द से संबोधित किया हो; क्योंकि उक्त दोषों का भी लगभग वही स्वरूप है, जो यहाँ सूक्ष्मपरसमय के प्रतिपादन में व्यक्त किया गया है । अत: एक संभावना यह भी हो सकती है कि यहाँ चल, मल और अगाढ़ दोष वाले क्षयोपशम सम्यग्दृष्टियों को ही यहाँ 'सूक्ष्मपरसमय' शब्द से संबोधित किया गया हो । अरे, भाई ! यह सब तो सूक्ष्मपरसमय का विवेचन है, मूलरूप से तो यहाँ यही उपयुक्त है कि स्वसमय माने सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा, मुक्तिमार्गी एवं मुक्त; तथा परसमय माने मिथ्यादृष्टि संसारी । प्रथम गुणस्थान वाले परसमय हैं और चौथे गुणस्थान से सिद्धदशा तक के जीव स्वसमय है ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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