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________________ समयसार गाथा 58-59-60 जब यह कहा जाता है कि ये भाव व्यवहार से जीव के हैं और निश्चय से जीव के नहीं; तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि फिर तो व्यवहारनय निश्चयनय का विरोधी ही हुआ, उसे अविरोधक कैसे कहा जा सकता है? इसी प्रश्न का उत्तर आगामी तीन गाथाओं में दिया गया है, जो इसप्रकार है - पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी। मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई॥५८॥ तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं। जीवस्य एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो॥५९॥ गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य। / सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति॥६०॥ (हरिगीत ) पथिक लुटते देखकर पथ लुट रहा जग-जन कहें। पर पथ तो लुटता है नहीं बस पथिक ही लुटते रहें / / 58 // उस ही तरह रंग देखकर जड़ कर्म अर नोकर्म का। जिनवर कहें व्यवहार से यह वर्ण है इस जीव का॥ 59 // इस ही तरह रस गंध तन संस्थान आदिक जीव के। व्यवहार से हैं - कहें वे जो जानते परमार्थ को॥६०॥ जिसप्रकार मार्ग में जाते हुए व्यक्ति को लुटता हुआ देखकर व्यवहारीजन ऐसा कहते हैं कि यह मार्ग लुटता है; किन्तु परमार्थ से विचार किया जाय तो कोई मार्ग तो लुटता नहीं है, अपितु मार्ग में चलता हुआ पथिक ही लुटता है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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