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________________ 435 समाधान - ऐसा नहीं है; क्योंकि द्रव्यकर्म का जीव के साथ जो संबंध है, वह असद्भूतव्यवहारनय से है। उसकी अपेक्षा तारतम्य दिखाने के लिए, उससे भिन्न दिखाने के लिए रागादिभावों को अशुद्धनिश्चयनय में लिया है; परन्तु वास्तव में तो शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा अशुद्धनिश्चयनय भी व्यवहार ही है / - उक्त कथन का यही भाव है, भावार्थ है।" उक्त सम्पूर्ण स्थिति को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "यहाँ दो प्रकार के सम्बन्ध की बात की है - (1) अवगाह संबंध और (2) तादात्म्य संबंध / भगवान आत्मा का रागादि के साथ अवगाह संबंध है अर्थात् आत्मा का जैसा ज्ञानगुण के साथ तादात्म्य संबंध है, वैसा रागादि के साथ संबंध नहीं है। दूसरे प्रकार से कहें तो आत्मा की रागादि के साथ एकरूपता नहीं है; अर्थात् दोनों के बीच साँध है, सन्धि है, दरार है। इसकारण ज्ञान की पर्याय को स्वभाव में झुकाने पर दोनों जुदे पड़ जाते हैं। __यह जो व्यवहाररत्नत्रय का राग है, इसके साथ आत्मा का अवगाह संबंध है, तादात्म्य संबंध नहीं है। इसकारण स्वलक्षणभूत ज्ञानगुण से देखने पर आत्मा वर्णादि और व्यवहाररत्नत्रय के राग से अधिक अर्थात् भिन्न ज्ञात होता है / पर्याय जब स्वभाव की ओर ढलती है, तब स्वभाव का गुणस्थान आदि भेदों से भिन्नपना भासित होता है / इसप्रकार रागादि के साथ आत्मा का तादात्म्यपना नहीं होने से निश्चय से सर्व रागादि पुद्गल के परिणाम हैं, आत्मा के परिणाम नहीं।२ जिसतरह दृष्टान्त में 'स्वलक्षणभूत दुग्धत्व गुण' लिया था; उसीतरह सिद्धान्त में स्वलक्षणभूत उपयोग गुण' लिया है / आत्मा और 1. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 306-307 2. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 306
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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