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________________ समयसार अनुशीलन इस प्रश्न के उत्तर के लिए पंचास्तिकाय की १६५वीं गाथा द्रष्टव्य जो इसप्रकार है है, 36 " अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि सुद्धसंपओगादो । हवदित्ति दुक्खमोखं परसमयरदो हवदि जीवो ॥ 'शुद्धसम्प्रयोग से दुःखों से मोक्ष होता है' - अज्ञान के कारण यदि ज्ञानी भी ऐसा माने तो वह परसमयरत जीव है । " इसी गाथा की टीका लिखते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि यह सूक्ष्मपरसमय के स्वरूप का कथन है । वे आगे लिखते हैं कि यहाँ सिद्धि के साधनभूत अरहंतादि भगवन्तों के प्रति भक्तिभाव से अनुरंजित चित्तवृत्ति ही शुद्धसम्प्रयोग है। जब अज्ञानलव के आवेश से यदि ज्ञानवान भी 'उस शुद्धसम्प्रयोग से मोक्ष होता है' ऐसे अभिप्राय द्वारा खेद प्राप्त करता हुआ उसमें (शुद्धसम्प्रयोग में) प्रवर्ते तो तबतक वह भी रागलव के सद्भाव के कारण परसमयरत कहलाता है; तो फिर निरंकुश रागरूपक्लेश से कलंकित अतरंगवृत्तिवाले इतर जन परसमयरत क्यों नहीं कहलायेंगे ? - उक्त गाथा और उसकी टीका दोनों ही गंभीर मंथन की अपेक्षा रखती हैं। सबसे मुख्य बात तो यह है कि 'ज्ञानी भी अज्ञान से' यह गाथा का वाक्य एवं 'अज्ञानलव के आवेश से यदि ज्ञानवान भी ' यह टीका का वाक्य ये दोनों ही वाक्य विरोधाभास - सा लिए हुए हैं । जब कोई व्यक्ति ज्ञानी है तो उसके अज्ञान कैसे हो सकता है? — यद्यपि सम्यग्ज्ञानी के भी औदयिक अज्ञान होता है, अल्पज्ञानरूप अज्ञान होता है; तथापि इस अज्ञान के कारण परसमयपना संभव नहीं होता । क्योंकि यहाँ शुद्धसम्प्रयोग का अर्थ अरहंतादि की भक्ति से अनुरंजित चित्तवृत्ति किया है और साथ ही यह भी लिखा है कि इससे मोक्ष होता है ऐसे अभिप्राय के कारण परसमयपना है । अत: यह सिद्ध ही है कि यहाँ औदयिक अज्ञान की बात नहीं है ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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