SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार अनुशीलन 420 यहाँ अलिंगग्रहण का अर्थ शब्दार्थ के रूप में ऐसा समझना कि लिंग माने अनुमान, ग्रहण माने जानना और अ माने नहीं। तात्पर्य ऐसा है कि भगवान आत्मा प्रत्यक्षानुभूति का विषय होने से अकेले अनुमान से ही नहीं जाना जाता; अत: अलिंगग्रहण है। __ अरस, अरूप, अगंध, अस्पर्श, अशब्द, अव्यक्त, अनिर्दिष्टसंस्थान और अलिंगग्रहण - ये आठ विशेषण तो निषेधपरक हैं; परन्तु चेतनागुणवाला - यह नौवाँ विशेषण विधिपरक है। चेतनागुण आत्मा का मूलस्वभाव है। अत: आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति में इसकी महिमा बतानेवाले अनेक विशेषण लगाये हैं; जो आत्मख्याति के अर्थ में दिये ही जा चुके हैं। अत: उनके बारे में कुछ विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है। हाँ, एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि चेतनागुण आत्मा का असाधारण स्वभाव होने से वह समस्त विवादों का नाश करनेवाला है। 39 से ४३वीं गाथा तक जो आठ प्रकार से मिथ्यावादियों की चर्चा की गई है और उनके द्वारा कथित आत्मा के स्वरूप की असत्यार्थता ४४वीं गाथा में बताई गई है और अब यहाँ आत्मा को चेतनागुणवाला कहकर सब विवादों को निरस्त कर दिया है। ___टीका के अन्त में कहा गया है कि इन अरसादि नौ विशेषणों से युक्त, चैतन्यस्वरूप, निर्मल प्रकाशवाला, "एक भगवान आत्मा ही परमार्थस्वरूप जीव है, जो इस लोक में पर से भिन्न ज्योतिस्वरूप टंकोत्कीर्ण विराजमान है। - इसप्रकार ४९वीं गाथा समाप्त हुई। अब ४९वीं गाथा में कहे गये भगवान आत्मा के अनुभव की प्रेरणा देते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कलशरूप काव्य लिखते हैं, जो इसप्रकार
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy