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________________ 385 कलश ३४ प्रयोजन की सिद्धि न हो; उस वचनालाप को, तर्क-वितर्क को अकार्यकोलाहल कहते हैं। यहाँ आत्मा संबंधी चर्चा को भी अकार्यकोलाहल कहकर निषेध किया गया है; क्योंकि भगवान आत्मा की प्राप्ति तो प्रत्यक्षानुभव से ही होती है। ध्यान रखने की बात यह है कि यहाँ आत्मा संबंधी व्यर्थ के तर्क-वितर्क का ही निषेध किया है; अनावश्यक बौद्धिकव्यायाम का ही निषेध किया है; देशनालब्धि और प्रायोग्यलब्धि में होनेवाले तत्त्वमंथन, चर्चा-वार्ता का निषेध नहीं समझना; क्योंकि यदि आत्मा संबंधी चर्चावार्ता एवं तत्त्वविचार नहीं करंगा, आगम और युक्तियों से तत्त्वनिर्णय नहीं करेगा, तो फिर छह माह तक आखिर करेगा क्या? देखो भाई, छह महीने तक अभ्यास करने की जो बात है, वह निर्विकल्प आत्मसन्मुखता की तो हो ही नहीं सकती; क्योंकि निर्विकल्प आत्मसन्मुखता तो यदि एक अन्तर्मुहूर्त भी रहे तो केवलज्ञान हो जायगा। यदि यह नहीं तो फिर छह महीने तक क्या अभ्यास करना? यही न कि आत्मा के लक्ष्य से वाँचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, पाठ और पठन-पाठन करना है और साथ ही यथासाध्य आत्मसन्मुख होने का सहज पुरुषार्थ करना है। जिनवाणी के प्रत्येक कथन का अर्थ 'कहाँ क्या संभव है' - के आधार पर खूब सोच-विचार कर करना चाहिए। सभी प्रकार के संकल्प-विकल्पों का निषेध और वह भी छह महीने तक - यह सब कैसे संभव है? जैसा कि ऊपर कहा गया है कि संकल्प-विकल्पों का पूर्णत: अभाव यदि अन्तर्मुहूर्त तक भी हो जावे तो केवलज्ञान हो जाता है और यहाँ छह महीने तक करने को कह रहे हैं। इसका तात्पर्य यही है कि यहाँ व्यर्थ के संकल्प-विकल्पों में वाद-विवादों में उलझने का ही निषेध है; विकल्पात्मक तत्त्वमंथन का नहीं, अति-आवश्यक तत्त्वचर्चा का भी नहीं।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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