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________________ समयसार अनुशीलन से अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । 376 (४) नई पुरानी अवस्थादिक के भेद से प्रवर्तमान नोकर्म जीव नहीं है; क्योंकि शरीर से अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। (५) समस्त जगत को पुण्य-पापरूप से व्याप्त करता हुआ कर्मविपाक भी जीव नहीं है; क्योंकि शुभाशुभभाव से अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । (६) साता-असातारूप से व्याप्त समस्त तीव्रता - मंदतारूप गुणों के द्वारा भेदरूप होनेवाला कर्म का अनुभव भी जीव नहीं है; क्योंकि सुखदुःख से भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । (७) श्रीखण्ड की भाँति उभयात्मकरूप से मिले हुए आत्मा और कर्म दोनों मिलकर भी जीव नहीं है; क्योंकि सम्पूर्ण कर्मों से भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । - (८) अर्थक्रिया में समर्थ कर्म का संयोग भी जीव नहीं है; क्योंकि आठ लकड़ियों के संयोग से बने पलंग से भिन्न पलंग पर सोनेवाले पुरुष की भाँति, कर्मसंयोग से भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावी जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । " · इसप्रकार आठ प्रकार की गलत मान्यताओं के निराकरण की बात - तो यहाँ स्वानुभवगर्भित युक्ति से कही है। इसीप्रकार की अन्य कोई
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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