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________________ 360 समयसार अनुशीलन __यह तो स्पष्ट किया ही जा चुका है कि समयसार को यहाँ नाटक के रूप में प्रस्तुत किया गया है । अत: अधिकार के आरंभ में ही आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि 'अब जीव और अजीव - ये दोनों द्रव्य एक होकर रंगभूमि में प्रवेश करते हैं।' यद्यपि जीव और अजीव हैं तो भिन्न-भिन्न ही, तथापि वे अनादि से एक साथ हैं, एकक्षेत्रावगाही हैं ; अत: अज्ञानीजनों को एक ही लगते हैं । इस बात को ही यहाँ नाटक के रूप में - इस रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है कि मानों वे दोनों एक होने का स्वांग बनाकर रंगमंच (स्टेज) पर आये हैं। इस अधिकार में मूल गाथाएँ आरंभ करने के पूर्व आत्मख्यातिकार आचार्य अमृतचन्द्र मंगलाचरण के रूप में एक छन्द लिखते हैं; जिसमें वे उस ज्ञान की महिमा गाते हैं; जो ज्ञान जीव और अजीव के इस भेद को जान लेता है। उक्त बात को स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा मंगलाचरण के छन्द के भावार्थ में लिखते हैं - "यह ज्ञान की महिमा कही। जीव-अजीव एक होकर रंगभूमि में प्रवेश करते हैं, उन्हें यह ज्ञान ही भिन्न जानता है। जैसे नृत्य में कोई स्वांग धरकर आये और उसे जो यथार्थरूप में जान ले, पहिचान ले तो वह स्वांगकर्ता उसे नमस्कार करके अपने रूप को जैसा का तैसा ही कर लेता है ; उसीप्रकार यहाँ समझना। ऐसा ज्ञान सम्यग्दृष्टि पुरुषों को होता है, मिथ्यादृष्टि इस भेद को नहीं जानते।" मंगलाचरण का वह छन्द इसप्रकार है : ( शार्दूलविक्रीड़ित ) जीवाजीवविवेकपुष्कलदृशा प्रत्याययत्पार्षदान्। आसंसारनिबद्धबंधन विधिध्वंसाद्विशुद्धं स्फुटत्॥ आत्माराममनन्तधाम महसाध्यक्षेण नित्योदितं । धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनोह्लादयत्॥३३॥
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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