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________________ समयसार गाथा ३८ अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इसप्रकार दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप परिणत आत्मा को स्वरूपसंचेतन कैसा होता है? तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को प्राप्त आत्मा, मोक्षमार्ग में स्थित आत्मा स्वयं के सम्बन्ध में क्या सोचता है, अपने आत्मा के बारे में क्या सोचता है; उसकी चिन्तन-प्रक्रिया कैसी होती है? इसी प्रश्न के उत्तर में ३८वीं गाथा का जन्म हुआ है, जो इसप्रकार है - अहमेक्को खलु सुद्धो दसणणाणमइओ सदारूवी। ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि॥३८॥ ( हरिगीत ) मैं एक दर्शन-ज्ञानमय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं। ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं ॥ ३८॥ दर्शन-ज्ञान-चारित्र परिणत आत्मा यह जानता है कि निश्चय से मैं सदा ही एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन-ज्ञानमय हूँ, अरूपी हूँ और अन्य द्रव्य किंचित्मात्र भी मेरे नहीं हैं, परमाणुमात्र भी मेरे नहीं हैं। ज्ञानी आत्मा के इसप्रकार के निरन्तर चिन्तन से उपशमित मोह के पुन: उत्पन्न होने के अवसर समाप्त हो जाते हैं । इस बात को जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - __ "आत्मा अनादिकाल से मोह के उदय से अज्ञानी था, वह श्रीगुरुओं के उपदेश से और स्वकाललब्धि से ज्ञानी हुआ तथा अपने स्वरूप को परमार्थ से जाना कि मैं एक हूँ, शूद्ध हूँ, अरूपी हूँ, दर्शन-ज्ञानमय हूँ। ऐसा जानने से मोह का समूल नाश हो गया, भावकभाव और ज्ञेयभाव
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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