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________________ समयसार अनुशीलन कोई साधारण पुस्तक नहीं है, यह तो केवली भगवान की वाणी का अवयव है, अंश है । अत: इसे केवली भगवान की वाणी के समान आदर देकर ही पढ़ना चाहिए । जब ऐसा करोगे, तभी इसके स्वाध्याय से पूरा लाभ प्राप्त होगा । 26 अन्त में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि भाववचन और द्रव्यवचन से इसका परिभाषण आरम्भ किया जाता है । भाववचन और द्रव्यवचन को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं" आचार्यदेव कहते हैं कि मेरी ज्ञानपर्याय भाववचन है और विकल्पपूर्वक जो वाणी निकलती है, वह द्रव्यवचन है। ज्ञानपर्याय में प्रतिसमय वृद्धि होती है और शब्द की रचना शब्द के कारण होती है । यहाँ दोनों का निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध बताया है ।" " - 'वोच्छामि' शब्द का अर्थ हिन्दी वचनिकाकार पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा इसी गाथा के भावार्थ में इसप्रकार करते हैं - "गाथा सूत्र में आचार्यदेव ने 'वक्ष्यामि' कहा है । उसका अर्थ टीकाकार ने 'वच परिभाषणे' धातु से परिभाषण किया है । उसका आशय इसप्रकार सूचित होता है कि चौदह पूर्वों में से ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्व में बारह वस्तु अधिकार हैं; उनमें भी एक-एक के बीस-बीस प्राभृत अधिकार हैं । उनमें से दसवें वस्तु में समय नामक जो प्राभृत है, उसके मूल सूत्रों के शब्दों का ज्ञान पहले बड़े आचार्यों को था और उसके अर्थ का ज्ञान आचार्यों की परिपाटी के अनुसार श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव को भी था । उन्होंने समयप्राभृत का परिभाषण किया परिभाषा बनाये सूत्र 1 सूत्र की दस जातियाँ कही गई हैं, उनमें से एक परिभाषा जाति भी है । जो अधिकार को अर्थ के द्वारा यथास्थान सूचित करे, वह परिभाषा १. आत्मधर्म (हिन्दी), अक्टूबर १९७६, पृष्ठ १८
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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