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________________ 313 गाथा ३४-३५ यहाँ धोबी के घर से भ्रमवश भूल से लाये गये वस्त्र को अपना मानकर सोनेवाले पुरुष और उसे जगाकर वस्तुस्थिति का ज्ञान करानेवाले पुरुष का उदाहरण देकर यह समझाया गया है कि यह आत्मा अनादि से ही परपदार्थों को अपना मानकर स्वयं अज्ञानी हो रहा है, किन्तु जब सद्गुरु समझाते हैं कि हे भाई; ये परभाव तेरे नहीं हैं, तू तो इनसे भिन्न ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा है; तब सद्गुरु के बारम्बार समझाने से सचेत हुआ यह आत्मा समस्त परपदार्थों से एकत्वबुद्धि छोड़ देता है, अपनापन तोड़ देता है, उससे मुँह मोड़ लेता है और अपने में अपनापन जोड़ लेता है । यह सम्पूर्ण क्रिया-प्रक्रिया ज्ञान में ही सम्पन्न होती है; क्योंकि परपदार्थ तो अपने कभी हुए ही नहीं है, मात्र उन्हें अपना जाना था, और अब उन्हें अपना जानना छोड़ दिया है। अतः सबकुछ ज्ञान में ही घटित हुआ है। अत: ज्ञान ही प्रत्याख्यान है। इस बात को कविवर पण्डित बनारसीदासजी इसप्रकार व्यक्त करते हैं - ( सवैया इकतीसा ) जैसैं कोऊ जन गयौ धोबी कै सदन तिन, पहिर्यो परायौ वस्त्र मेरौ मानि रह्यौ है। धनी देखि कह्यौ भैया यह तौ हमारौ वस्त्र, चीन्, पहिचानत ही त्यागभाव लह्यौ है। तैसैं ही अनादि पुद्गल सौं संयोगी जीव, संग के ममत्व सौं विभावता मैं बह्यौ है। भेदज्ञान भयौ जब आपौ पर जान्यौ तब, न्यारौ परभाव सौं स्वभाव निज गह्यौ है ॥३२॥ जिसप्रकार कोई व्यक्ति धोबी के घर से दूसरे के वस्त्र को ले आया और उसे अपना मानकर पहन लिया। जब उस वस्त्र के मालिक ने कहा
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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