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________________ समयसार अनुशीलन 306 आचार्य अमृतचन्द्रदेव इस प्रकरण के उपसंहाररूप में दो कलश काव्य लिखते हैं, जिनमें सम्पूर्ण वस्तु का उपसंहार करते हुए निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। ( शार्दूलविक्रीडित ) एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोनिश्चयानुः स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः । स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवे - नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्मांगयोः॥२७॥ - ( हरिगीत ) इस आतमा अर देह का एकत्व बस व्यवहार से। यह शरीराश्रित स्तवन भी इसलिए व्यवहार से। परमार्थ से स्तवन है चिद्भाव का ही अनुभवन। परमार्थ से तो भिन्न ही हैं देह अर चैतन्यघन ॥२७॥ शरीर और आत्मा के व्यवहारनय से एकत्व है, किन्तु निश्चयनय से नहीं। इसलिए शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन व्यवहार से ही कहलाता है, निश्चयनय से नहीं। निश्चयनय से तो चेतन के स्तवन से ही चेतन का स्तवन होता है। और वह चेतन का निश्चय स्तवन यहाँ जितेन्द्रिय, जितमोह और क्षीणमोह रूप से जैसा कहा है, वैसा ही होता है। इसप्रकार अज्ञानी ने तीर्थंकरों के व्यवहार स्तवन के आधार पर जो प्रश्न खड़ा किया था; उसका नयविभाग से इसप्रकार उत्तर दिया है; जिसके बल से यह सिद्ध हुआ कि आत्मा और शरीर में निश्चय से एकत्व नहीं है। इस कलश की भावानुवाद कविवर बनारसीदासजी नाटक समयसार में इसप्रकार करते हैं -
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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