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________________ 291 गाथा ३१ इसप्रकार जो कोई मुनि द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय और उनके विषयभूत पदार्थों को जीतता है, उसका सब ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष दूर हो जाता है। 'जानने योग्य वस्तु ज्ञायक की है और जाननेवाला ज्ञायक जानने योग्य वस्तु का है' – ऐसा जानना अज्ञान है. ज्ञेयज्ञायकसंकरदोष है। ___ जड़ इन्द्रियाँ, भावेन्द्रियाँ तथा भगवान और भगवान की वाणी इत्यादि इन्द्रियों के विषय पररूप होने से स्व से भिन्न है; - ऐसा होते हुए भी अज्ञानी उन्हें अपनी मानता है । कारण कि जिससे लाभ हुआ माने, उसे अपनी माने बिना रह नहीं सकता। यदि वे अज्ञानी अपने सूक्ष्म चैतन्यस्वभाव का अवलम्बन लें, अखण्ड एक ज्ञायक का आश्रय लें, असंगस्वभावी निज चैतन्य का अनुभव करें तो यह सम्पूर्ण दोष दूर हो सकता है। समझाने के लिए कथन करें तो कथन में क्रम पड़ता है, किन्तु जब आत्मा का आश्रय लिया जाता है, तब एक साथ सभी इन्द्रियाँ (द्रव्येन्द्रियाँ, भावेन्द्रियाँ और इनके विषयभूत पदार्थ) जीत ली जाती हैं । जब अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव के बल से द्रव्येन्द्रियों को जीतता है, तब भावेन्द्रियों और इन्द्रियों के विषय का लक्ष्य भी छूट जाता है। इसीप्रकार जब परविषयों को जीतता है, तब भी द्रव्य का ही लक्ष्य होने से जड़-इन्द्रियाँ व भावेन्द्रियाँ जीत ली जाती हैं। ___ शरीर परिणाम को प्राप्त द्रव्येन्द्रियाँ, खण्ड-खण्डज्ञानरूप भावेन्द्रियाँ और इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ कुटुम्ब-परिवार, देव-शास्त्र-गुरु आदि सभी परज्ञेय हैं और ज्ञायक स्वयं भगवान आत्मा स्वज्ञेय है। विषयों की आसक्ति से उन दोनों का एक जैसा अनुभव होता था, निमित्त की रुचि से ज्ञेय-ज्ञायक का एक जैसा अनुभव होता था; किन्तु १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग - २, पृष्ठ ४०
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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