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________________ 19 गाथा १ इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्रदेव आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त करते हैं - __ "यह पंचमगति (सिद्धदशा) स्वभाव के आलम्बन से उत्पन्न हुई होने से ध्रुव है, अनादिकालीन परिभ्रमण का अभाव हो जाने से अचल है और उपमा देने योग्य जगत के सम्पूर्ण पदार्थों से विलक्षण होने एवं अद्भुत महिमा की धारक होने से अनुपम है। ___ धर्म, अर्थ और काम – इस त्रिवर्ग से भिन्न होने के कारण अपवर्ग है नाम जिसका, ऐसी पंचमगति को प्राप्त सर्वसिद्धों को; जो मेरे आत्मा ‘की साध्यदशा के स्थान पर हैं अर्थात् जैसा मुझे बनना है, जो मेरा आदर्श है, उसके स्थान पर हैं; उन सर्वसिद्धों को भावस्तुति और द्रव्यस्तुति के माध्यम से अपने और पर के आत्मा में स्थापित करके; सर्वपदार्थों को साक्षात् जाननेवाले केवलियों द्वारा प्रणीत, अनादिनिधन श्रुत द्वारा प्रकाशित, स्वयं अनुभव करनेवाले श्रुतकेवलियों द्वारा कथित होने से प्रमाणता को प्राप्त; सर्वपदार्थों या शुद्धात्मा का प्रकाशक एवं अरहंत भगवान के प्रवचनों का अवयव है जो– ऐसे इस समयसार नामक ग्रन्थ का अपने और पराये अनादिकालीन मोह के नाश के लिए भाववचन और द्रव्यवचन के माध्यम से परिभाषण आरम्भ किया जाता है।" चारों ही गतियाँ परपदार्थों के अवलम्बन से उत्पन्न होती हैं, इसकारण अध्रुव हैं, विनाशीक हैं; पर पंचमगति सिद्धदशा स्वभाव के अवलम्बन से उत्पन्न होती है; अत: ध्रुव है, अविनाशी है, सदा एकसी रहनेवाली है। ___ यद्यपि परिवर्तन तो सिद्धदशा में भी होता है, पर वह परिवर्तन सदा एक-सा ही होता है, सुखरूप ही होता है; इसकारण इसे ध्रुव कहा है। सदा एकरूप ही रहनेवाले ध्रुव स्वभाव के अवलम्बन से उत्पन्न होने के कारण सिद्धदशा सदा एक-से आनन्दरूप ही रहती है, शान्तिरूप ही रहती है। पर अनेक रूप धारण करनेवाले परपदार्थों के आश्रय से
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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