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________________ 243 कलश २१ और भी अनेक स्थानों पर भेदविज्ञान की महिमा विविध प्रकार से गाई गई है। जिसे जानकर पूरी शक्ति लगाकर भेदविज्ञान प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। दूसरी बात यह है कि परपदार्थों के जानने से न तो लाभ है और न हानि ही है। उनके नहीं जानने से तो हमारा कुछ बिगड़नेवाला है ही नहीं; परन्तु अपने ज्ञान में उनके ज्ञेय बनने से भी कुछ बिगड़नेवाला नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार दर्पण में अनन्त पदार्थ झलकते हैं, पर उससे दर्पण विकृत नहीं होता; उसीप्रकार अनन्त ज्ञेयों के जानने से भी हमारा ज्ञानदर्पण विकृत होनेवाला नहीं है । बिगड़ता तो उन्हें अपना जानने से है, अपना मानने से है, उनमें ही जमने-रमने से है, उनका ही ध्यान करने से हैं; अकेले जाननेमात्र से कुछ भी बिगाड़-सुधार नहीं है । अतः न उन्हें जानने का हट करना चाहिए और न नहीं जानने का भी हट करना चाहिए । सहजभाव से जैसे जो ज्ञात हो जावे, हो जाने दें; न होवे तो, न होने दें; उनके प्रति सहजभाव धारण करना ही श्रेयस्कर है । इस कलश में इन्हीं दो बातों पर वजन दिया गया है। इस कलश के भाव को बनारसीदासजी ने निम्नांकित छन्द में इसप्रकार व्यक्त किया है - ( सवैया तेईसा ) कै अपनौं पद आप संभारत, कै गुरु के मुख की सनि वानी। भेदविग्यान जग्यो जिन्हि कै, प्रगटी सुविवेक कला रजधानी॥ भाव अनंत भये प्रतिबिम्बित जीवन मोख दसा ठहरानी। ते नर, दर्पण ज्यौं अविकार हैं थिररूप सदा सुखदानी॥ या तो स्वयं ही या गुरुमुख से सुनकर जो अपने आत्मा को जानते हैं, देखते हैं, स्वयं को संभालते हैं; अन्तर में भेद-विज्ञान जग जाने से जिनके स्वपर विवेक की शक्ति प्रगट हो गई है, जिनके ज्ञानदर्पण में अनंत भाव प्रतिबिम्बित हो गये हैं और जिनकी दशा जीवनमुक्त जैसी ,
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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