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________________ 239 गाथा १९ उसीप्रकार कर्म-नोकर्म तो ज्ञेय है; उनका जो प्रतिबिम्ब आत्मा में प्रतिभासित होता है; वह आत्मा के ज्ञान की ही स्वच्छता है; क्योंकि कर्म-नोकर्म तो आत्मा में प्रविष्ट हुए ही नहीं हैं; वे तो स्वयं में ही हैं। इसप्रकार का भेदज्ञानरूप अनुभव जब आत्मा को होता है, तभी आत्मा प्रतिबुद्ध होता है। इसी बात को आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "जिसप्रकार स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, आदि भावों में तथा चौड़ा, गहरा, अवगाहरूप उदरादि के आकार परिणत हुए पुद्गलस्कंधों में 'यह घट है' इसप्रकार की अनुभूति होती है और घट में यह स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भाव तथा चौड़े, गहरे, उदराकार आदि रूप परिणत पुद्गलस्कंध है' - इसप्रकार वस्तु के अभेद से अनुभूति होती है। उसीप्रकार जो मोह आदि अन्तरंग परिणामरूप कर्म और शरीरादि बाह्यवस्तुरूप नोकर्म - सभी पुद्गल के परिणाम हैं और आत्मा को तिरस्कार करनेवाले हैं; उनमें 'यह मैं हूँ' - इसप्रकार तथा आत्मा में 'यह मोह आदि अन्तरंग परिणामरूपकर्म और शरीरादि बाह्यवस्तुरूप नोकर्म आत्मतिरस्कारी पुद्गल परिणाम हैं ' - इसप्रकार वस्तु के अभेद से जबतक अनुभूति है, तबतक आत्मा अप्रतिबुद्ध है, अज्ञानी है। जिसप्रकार रूपी दर्पण की स्वच्छता ही स्व-पर के आकार का प्रतिभास करनेवाली है और उष्णता तथा ज्वाला अग्नि की है। इसीप्रकार अरूपी आत्मा की तो अपने को और पर को जाननेवाली ज्ञातृता ही है और कर्म तथा नोकर्म पुद्गल के हैं। इसप्रकार स्वतः अथवा परोपदेश से, जैसे भी हो; जिसका मूल भेदविज्ञान है, ऐसी अनुभूति उत्पन्न होगी, तब ही आत्मा प्रतिबुद्ध होगा, ज्ञानी होगा।"
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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