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________________ समयसार अनुशीलन 234 "प्रश्न -आत्मा तो ज्ञान के साथ तादात्म्यस्वरूप है; अत: वह ज्ञान की उपासना निरन्तर करता ही है। फिर भी उसे ज्ञान की उपासना करने की प्रेरणा क्यों दी जाती है? उत्तर - ऐसी बात नहीं है। यद्यपि आत्मा ज्ञान के साथ तादात्म्यस्वरूप है; तथापि वह एक क्षणमात्र भी ज्ञान की उपासना नही करता; क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति या तो स्वयंबुद्धत्व से होती है या फिर बोधितबुद्धत्व से होती है । तात्पर्य यह है कि या तो काललब्धि आने पर स्वयं ही जान ले या फिर कोई उपदेश देनेवाला मिल जावे, तब जाने। प्रश्न –तो क्या आत्मा तबतक अज्ञानी ही रहता है, जबतक कि वह या तो स्वयं नहीं जान लेता या फिर किसी द्वारा समझाने पर नहीं जान लेता? उत्तर - हाँ, बात तो ऐसी ही है; क्योंकि उसे अनादि से सदा अप्रतिबुद्धत्व ही रहा है, अज्ञानदशा ही रही है।" उक्त कथन में उत्पत्ति की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के निसर्गज और अधिगमज नामक जो दो भेद हैं, उनकी ओर संकेत किया गया है। जिसप्रकार सोया हुआ पुरुष या तो स्वयं जाग जाय या फिर कोई जगाये, तब जागे । इसीप्रकार यह आत्मा या तो स्वयं जागृत हो और अपने आत्मा को जान ले या फिर कोई गुरु उपदेश देकर जागृत करे, आत्मा का स्वरूप समझावे, आत्मानुभव करने की प्रेरणा करे; तब जागृत हो और पुरुषार्थ करके आत्मा को जान ले, अनुभूति प्राप्त कर ले। प्रश्न –तो क्या ऐसा होता है कि कोई तो स्वयं जान ले और कोई गुरुदेव के समझाने पर जाने? उत्तर – यह कथन मुख्यता और गौणता की दृष्टि से किया गया कथन है। वैसे तो नियम ऐसा ही है कि देशनालब्धिपूर्वक ही करणलब्धि होती है और सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति करणलब्धिपूर्वक ही होती है। अत: उपदेश भी आवश्यक है और स्वयं का पुरुषार्थ भी
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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