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________________ 207 कलश १५ गुणस्थान तक साधकदशा है और अरहंत और सिद्धदशा साध्यदशा है। पर्याय में पूर्णता की प्राप्ति हो जाना साध्यदशा है और आत्मोपलब्धि होकर पूर्णता की ओर अग्रसर होना साधकदशा है। अथवा आत्मा में उपयोग का केन्द्रित होना और फिर बाहर आ जाना, फिर अन्दर जाना और फिर बाहर आ जाना - इसप्रकार बार-बार अन्दर जाना और बाहर आना साधकदशा है और शुद्धोपयोग में अनन्तकाल तक के लिए समा जाना साध्यदशा है। __ आत्मा की सिद्धदशा अमल भी है और अचल भी है; परन्तु अरहंत-अवस्था अमल तो है, पर अचल नहीं; क्योंकि उसमें योग के निमित्त से आत्मप्रदेशों में चंचलता पाई जाती है, चलाचलपना पाया जाता है । इस दृष्टि से विचार करें तो अकेली सिद्धदशा ही साध्यभाव है, आत्मज्ञानी की शेष सभी दशायें साधकभाव में आती हैं। पूर्ण वीतरागी व सर्वज्ञ हो जाने से, अमलता प्राप्त हो जाने से तथा उपयोग के निरन्तर आत्मसन्मुख ही रहने से, निरन्तर शुद्धोपयोगी होने से जब अरहंत भगवान को भी साध्यदशा में लेते हैं तो फिर उसके पहले के धर्मात्मा जीव साधकदशावाले कहे जाते हैं। उपयोग का आत्मसन्मुख होना ही आत्मा की सच्ची उपासना है। जब वह उपयोग निरन्तर आत्मसन्मुख होता है तो उस उपासना को साध्यभाव की उपासना कहते हैं और जब वह कभी-कभी आत्मसन्मुख होता है तो उसे साधकभाव की उपासना कहते हैं। पर एक बात निश्चित ही है कि आत्मा की उपासना तो आत्मसन्मुख होने में ही है, आत्मज्ञान में ही है, आत्मध्यान में ही है, अपने में अपनापन स्थापित करने में ही है। इन्हीं का नाम निश्चय रत्नत्रय है - निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक्चारित्र है। तात्पर्य यह है कि निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति ही निज भगवान आत्मा की उपासना है, निज भगवान आत्मा की आराधना
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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