SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार अनुशीलन 10 इत्यादि कथन द्वारा आचार्य विद्यानंदी चौबीसों तीर्थंकरों, अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर और आप्तमीमांसा के कर्ता आचार्य समन्तभद्र को एक ही छन्द में स्मरण करते हैं; क्योंकि उनकी अष्टसहस्री कृति का आधार समन्तभद्र की आप्तमीमांसा ही है। उसीप्रकार त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के प्रतिपादक आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार की टीका आरम्भ करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र समयसार ग्रंथाधिराज, उसके प्रतिपाद्य भगवान आत्मा एवं उसके कर्ता आचार्य कुन्दकुन्द के रूप में देव-शास्त्र-गुरु को 'समयसार' शब्द से एक साथ ही स्मरण करें तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? इसप्रकार देवाधिदेव के रूप में समयसाररूप भगवान आत्मा एवं देव-शास्त्र-गुरु का स्मरण कर आचार्य अमृतचन्द्रदेव अब अनेकान्तमयी जिनवाणी नित्य प्रकाशित रहे, भव्य जीवों को मुक्ति का मार्ग दिखाती रहे - ऐसी मंगल कामना करते हुए दूसरा कलश लिखते हैं, जो इसप्रकार है - ( अनुष्टुभ् ) अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः। अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम्॥२॥ ( सोरठा ) देखे पर से भिन्न, अगणित गुणमय आतमा। अनेकान्तमयमूर्ति, सदा प्रकाशित ही रहे ॥२॥ परपदार्थों, उनके गुण-पर्यायरूप भावों एवं परपदार्थों के निमित्त से होनेवाले अपने विकारों से कथंचित् भिन्न एकाकार अनन्तधर्मात्मक निज आत्मतत्त्व को देखनेवाली, जाननेवाली, प्रकाशित करनेवाली, अनेकान्तमयी मूर्ति सदा ही प्रकाशित रहे, जयवंत वर्ते। इस छन्द के भावार्थ में पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं -
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy