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________________ समयसार अनुशीलन 160 इस कलश का भावानुवाद कविवर बनारसीदासजी नाटक समयसार में इसप्रकार करते हैं - ( सवैया इकतीसा ) जैसैं रवि-मंडल के उदै महि-मंडल मैं, आतप अटल तम पटल विलातु है। तैसैं परमातमा को अनुभौ रहत जौलों, तौलौं कहूं दुविधा न कहूं पच्छपातु है॥ नय कौ न लेस परवान कौ न परवेस, निच्छेप के वंस को विधुंस होत जातु है। जे जे वस्तु साधक हैं तेऊ तहां बाधक हैं, बाकी राग दोष की दसा की कौन बातु है॥ जिसप्रकार सूर्योदय होने पर समस्त पृथ्वी पर धूप फैल जाती है और अंधकार विलुप्त हो जाता है; उसीप्रकार जब तक आत्मानुभव रहता है, तब तक किसीप्रकार की दुविधा नहीं रहती और न ही किसीप्रकार का पक्षपात ही रहता है। नय विकल्पों का लेश भी नहीं रहता और प्रमाण संबंधी विकल्पों का प्रवेश भी नहीं होता तथा निक्षेप संबंधी समस्त व्यवहार का तो अभाव ही हो जाता है। राग-द्वेष की तो बात ही क्या करें, जो-जो वस्तुएँ विकल्प के काल में साधक होती थीं; वे सभी अनुभूति के काल में बाधक हो जाती हैं। प्रश्न-आपने कहा कि अनुभव के काल में द्वैत भासित नहीं होता, तो क्या वस्तु में द्वैतभाव है ही नहीं? उत्तर -इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा इसी कलश के भावार्थ में लिखते हैं - "यहाँ विज्ञानाद्वैतवादी तथा वेदान्ती कहते हैं कि अन्त में परमार्थरूप तो अद्वैत का ही अनुभव हुआ। यही हमारा मत है, इसमें आपने विशेष क्या कहा?
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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