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________________ समयसार अनुशीलन 158 ( मालिनी ) उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम्। किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मिन् ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव॥९॥ (रोला) निक्षेपों के चक्र विलय नय नहीं जनमते। अर प्रमाण के भाव अस्त हो जाते भाई॥ अधिक कहें क्या द्वैतभाव भी भासित ना हो। शुद्ध आतमा का अनुभव होने पर भाई॥९॥ सर्वप्रकार के भेदों से पार सामान्य, अभेद-अखण्ड, नित्य, एक चिन्मात्र भगवान आत्मा को विषय बनानेवाले परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत शुद्धात्मा का अनुभव होने पर नयों की लक्ष्मी उदय को प्राप्त नहीं होती, प्रमाण अस्त हो जाता है और निक्षेपों का समूह कहाँ चला जाता है? – यह हम नहीं जानते। जब द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होता, तब प्रमाणादि के विकल्पों की तो बात ही क्या करें? ___ तात्पर्य यह है कि अनुभव में सर्वप्रकार के भेद अत्यन्त गौण हो जाते हैं, प्रमाण-नयादि के भेदों की बात तो बहुत दूर, द्वैत का भी अनुभव नहीं होता, मात्र एकाकार चिन्मात्र ही दिखाई देता है । प्रश्न -कलशटीका में तो लिखा है कि प्रमाण-नय-निक्षेपरूप बुद्धि के द्वारा एक ही जीवद्रव्य के द्रव्य-गुण-पर्यायरूप अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप जो भेद किए जाते हैं, वे समस्त झूठे हैं । इन सबके झूठे होने पर जो कुछ वस्तु का स्वाद आता है, वह अनुभव है। __ अब प्रश्न यह है कि यहाँ झूठे का क्या अर्थ है, क्या द्रव्य-गुणपर्याय व उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य वस्तु में नहीं हैं? प्रमाण-नय-निक्षेप और उनका कथन क्या सर्वथा असत्यार्थ है?
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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