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________________ समयसार अनुशीलन 156 __ आठवें कलश के उपरान्त समागत आत्मख्याति का भाव इसप्रकार है - "अब जैसे नवतत्त्वों में एक जीव को ही जानना भूतार्थ कहा है, उसीप्रकार एकरूप से प्रकाशमान आत्मा के अधिगम के उपायभूत जो प्रमाण, नय, निक्षेप हैं; वे भी निश्चय से अभूतार्थ हैं, उनमें भी यह आत्मा ही भूतार्थ है। तात्पर्य यह है कि उनमें भी एक आत्मा को बतानेवाला नय ही भूतार्थ है। प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण दो प्रकार का है। जो इन्द्रिय, मन आदि उपात्त परपदार्थों एवं प्रकाश, उपदेश आदि अनुपात्त परपदार्थों द्वारा प्रवर्ते, वह परोक्षप्रमाण है और जो केवल आत्मा से ही प्रतिनिश्चितरूप से प्रवृत्ति करे, वह प्रत्यक्षप्रमाण है। पाँच प्रकार के ज्ञानों में मतिज्ञान व श्रुतज्ञान परोक्षप्रमाण हैं, अवधिज्ञान व मनः पर्य यज्ञान एक देशप्रत्यक्षप्रमाण हैं और के वलज्ञान सकलप्रत्यक्षप्रमाण है। प्रत्यक्ष और परोक्ष - ये दोनों ही प्रमाण; प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय के भेद का अनुभव करने पर भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं; किन्तु जिसमें सर्वभेद गौण हो गये हैं, ऐसे एक जीव के स्वभाव का अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। __ नय दो प्रकार के हैं - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में जो नय मुख्यरूप से द्रव्य का अनुभव कराये, वह द्रव्यार्थिक नय है और जो नय उसी द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तु में मुख्यरूप से पर्याय का अनुभव कराये, वह पर्यायार्थिक नय है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक – ये दोनों नय द्रव्य और पर्याय का पर्याय से, भेद से, क्रम से अनुभव करने पर भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और द्रव्य तथा पर्याय दोनों से अनालिंगित शुद्धवस्तुमात्र जीव के चैतन्यमात्र स्वभाव का अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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