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________________ 140 समयसार अनुशीलन छठवें कलश में कहा गया था कि हमें नौ तत्त्व की संततिवाला व्यवहारसम्यग्दर्शन नहीं चाहिए, हमें तो शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाला निश्चयसम्यग्दर्शन ही अभीष्ट है। अत: यहाँ यह कहा जा रहा है कि नौ तत्त्वों में भी एक आत्मज्योति ही प्रकाशमान है और वह नौ तत्त्वों में जाकर भी एकत्व को नहीं छोड़ती है। ___ तात्पर्य यह है कि निश्चय और व्यवहार सम्यग्दर्शन अलग-अलग नहीं होते। सम्यग्दर्शन तो एक ही है और वह शुद्धनय के विषयभूत आत्मा के आश्रय से ही उत्पन्न होता है । उक्त निश्चयसम्यग्दर्शन के धारक को नवतत्त्वों की भी सच्ची श्रद्धा होती है अर्थात् वे जैसे हैं, उनकी वैसी ही श्रद्धा होती है । निश्चयसम्यग्दृष्टि की नवतत्त्वों संबंधी उक्त श्रद्धा को ही व्यवहारसम्यग्दर्शन कहते हैं। ___ सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा के आत्मश्रद्धान को निश्चयसम्यग्दर्शन और नवतत्त्व के श्रद्धान को व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा जाता है। अगली ही गाथा में यह कहने जा रहे हैं कि भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं। पाँचवाँ, छठवाँ एवं सातवाँ - ये तीनों कलश अगली गाथा की उत्थानिकारूप कलश हैं। अत: इन कलशों की संगति आगामी गाथा से बैठती है। जहाँ विवेक है; वहाँ आनन्द है, निर्माण है और जहाँ अविवेक है; वहाँ कलह है, विनाश है। समय तो एक ही होता है, पर जिस समय अविवेकी निरन्तर षड्यन्त्रों में संलग्न रह बहुमूल्य नरभव को यों ही बरबाद कर रहे होते हैं; उसी समय विवेकीजन अमूल्य मानव भव का एक-एक क्षण सत्य के अन्वेषण, रमण एवं प्रतिपादन द्वारा स्वपर हित में संलग्न रह सार्थक व सफल करते रहते हैं। वे स्वयं तो आनन्दित रहते ही हैं, आसपास के वातावरण को भी आनन्दित कर देते हैं। - सत्य की खोज, पृष्ठ १९९
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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