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________________ 127 गाथा १२ ___जो जीव अपरमभाव में स्थित हैं अर्थात् श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र के पूर्णभाव को नहीं पहुँच सके हैं, साधक-अवस्था में ही स्थित हैं; उन्हें व्यवहार द्वारा भी उपदेश करने योग्य है। सम्यग्दर्शन हुआ है, किन्तु सम्यग्ज्ञान-चारित्र पूर्ण नहीं हुए। सर्वज्ञता की प्रतीति हुई है, किन्तु सर्वज्ञपद प्रकट नहीं हुआ है। - ऐसी साधक दशा में जो स्थित हैं, वे 'व्यवहारदेशिताः' अर्थात् व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं । शब्द तो 'व्यवहारदेशिताः' है; किन्तु इसका वाच्यार्थ तो यह है कि उस काल में जो कुछ व्यवहार है, वह जानने योग्य है। प्रतिसमय साधक को शुद्धता बढ़ती है, अशुद्धता घटती है । जिस समय जितनी शुद्धताअशुद्धता है, वह मात्र जानने के लिए प्रयोजनवान है ।" शुद्धनय जाना हुआ प्रयोजनवान है और व्यवहारनय उसकाल जाना हुआ प्रयोजनवान है। शुद्धनय का विषयभूत आत्मा तो सदा ही जानने योग्य है, पर वह परमभाव को प्राप्त पुरुषों को ही जानने में आता है। व्यवहारनय के विषयभूत अणुव्रत-महाव्रतादि एवं भक्ति-स्वाध्याय आदि के शुभभाव भूमिकानुसार जिस-जिस समय जो-जो आते हैं; वे सब उस-उस समय जाने हुए प्रयोजनवान हैं । तात्पर्य यह है कि वे करने योग्य हैं; उपादेय हैं' - ऐसी बात नहीं है; अपितु वे निचली भूमिका में आये बिना नहीं रहते; अतः उन्हें वीतरागभाव से अपने ज्ञान के ज्ञेय बना लेना चाहिए । न तो उनमें उपादेयबुद्धि रखनी चाहिए और न उनके आजाने से आकुल-व्याकुल ही होना चाहिए; बल्कि ऐसा जानना चाहिए की चौथे-पाँचवें एवं छठे गुणस्थान की भूमिका में ऐसे भावों का होना सहजवृत्ति ही है। आगे भी जहाँतक छद्मस्थ अवस्था है, वहाँतक अबुद्धिपूर्वक यथायोग्य रागभाव विद्यमान रहते हैं, पर वे भी मात्र उसकाल जाने हुए प्रयोजनवान हैं। वे करने योग्य नहीं हैं, पर होते अवश्य हैं। अत: उन्हें निर्विकारभाव से जानकर सहजभाव धारण करना ही श्रेष्ठ है । २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ १५८-५९
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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