SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा १२ निश्चय का प्रतिपादक ही तो है; अतः निश्चय को नहीं जाननेवाले को ही व्यवहारमार्ग से समझना - समझाना प्रयोजनवान है । 125 २. शुभोपयोग और शुद्धोपयोग की अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत - सम्यग्दृष्टि, पंचमगुणस्थानवर्ती अणुव्रती एवं षष्ठगुणस्थानवर्ती महाव्रती मुनिराज शुभोपयोग के काल में अपरमभाव में स्थित हैं और अनुभव के काल में तथा सप्तमादि-गुणस्थानों में स्थित शुद्धोपयोगी परमभाव में स्थित हैं। ३. छद्मस्थ और वीतरागी - सर्वज्ञ की अपेक्षा बारहवें गुणस्थान तक के सभी ज्ञानी - अज्ञानी छद्मस्थ अपरमभाव में स्थित हैं और तेरहवें गुणस्थान से लेकर आगे के सभी वीतरागी - सर्वज्ञ परमभाव में स्थित हैं; क्योंकि अन्तिमपाक से उतरे हुए शुद्धस्वर्ण के समान शुद्धता तो उन्हीं पर घटित होती है । प्रश्न – शुद्धोपयोगियों को शुद्धनय का उपदेश देने की क्या आवश्यकता है, अनुभव के काल में वे उपदेश को ग्रहण भी कैसे करेंगे? तथा सम्यग्दृष्टियों को व्यवहार से समझाने की क्या आवश्यकता है, क्योंकि वे वस्तुतत्त्व को समझकर ही सम्यग्दृष्टि हुए हैं । अतः प्रश्न यह है कि शुद्धोपयोगियों को शुद्धनय और सम्यग्दृष्टियों को व्यवहारनय किसप्रकार प्रयोजनवान होंगे ? उत्तर – यहाँ निश्चय - व्यवहार के उपदेश देने की विवक्षा नहीं है। यहाँ तो यह बताया जा रहा है कि शुद्धि और अशुद्धि की कहाँकहाँ क्या-क्या स्थिति रहती है। किस भूमिका में कितनी शुद्धता रहती है और कितना राग रहता है - यहाँ तो बस यही बताना अभीष्ट है । जिस भूमिका में जितना राग- व्यवहार रहता है, उस भूमिका में वह राग- व्यवहार उस काल जानने में आता हुआ प्रयोजनवान है । इसीप्रकार जिस भूमिका में जितनी शुद्धि विद्यमान रहती है, वह भी मात्र जानने में आती हुई प्रयोजनवान है ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy