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________________ 121 गाथा १२ अभाव हो जायेगा। ऐसा होने पर जीव के संसारी और सिद्ध - ऐसे जो दो विभाग पड़ते हैं, वह व्यवहार भी नहीं रहेगा । ___ भाई ! बहुत गंभीर अर्थ है। भाषा तो देखो। यहाँ मोक्षमार्ग की पर्याय को 'तीर्थ' कहा और वस्तु को 'तत्त्व' कहा है। त्रिकाली ध्रुव चैतन्यघन वस्तु निश्चय है । यदि उस वस्तु को नहीं मानेंगे तो तत्त्व का नाश हो जाएगा और तत्त्व के अभाव में, तत्त्व के आश्रय से उत्पन्न हुआ जो मोक्षमार्गरूप तीर्थ, वह भी नहीं रहेगा। इस निश्चयरूप वस्तु को नहीं मानने से तत्त्व का और तीर्थ का दोनों का नाश हो जायेगा; इसलिए वस्तुस्वरूप जैसा है, वैसा यथार्थ मानना। जबतक पूर्णता नहीं हुई, तबतक निश्चय और व्यवहार दोनों होते हैं । पूर्णता हो गई अर्थात् स्वयं में पूर्ण स्थिर हो गया, वहाँ सभी प्रयोजन सिद्ध हो गये। उसमें तीर्थ व तीर्थफल सभी कुछ आ गया ।" प्रश्न -'परमभाव में स्थित पुरुषों को शुद्धनय जानने योग्य है और जो अपरमभाव में स्थित हैं, वे व्यवहारनय द्वारा उपदेश करने योग्य हैं।' - गाथा में समागत उक्त कथन में मूल समस्या यह है कि गुणस्थान परिपाटी के अनुसार किन्हें परमभाव में स्थित माना जाय और किन्हें अपरमभाव में स्थित माना जाय ? उत्तर – यद्यपि आचार्य अमृचन्द्र ने अन्तिम पाक से उतरे हुए शुद्धस्वर्ण एवं प्रथम-द्वितीय पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्धस्वर्ण का उदाहरण देकर बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया है; तथापि गुणस्थानों का स्पष्ट उल्लेख न होने से चित्त में थोड़ी-बहुत अस्पष्टता बनी ही रहती है । ___ तात्पर्यवृत्ति में आचार्य जयसेन भी 'परमभाव' शब्द की व्याख्या में तो गुणस्थानों का स्पष्ट उल्लेख नहीं करते, परन्तु अपरमभाव' की व्याख्या में जो कुछ लिखते हैं, वह मूलतः इसप्रकार है : १. प्रवचनरत्नाकर भाग १, पृष्ठ १६२-६३
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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