SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार अनुशीलन निश्चयनय को भूतार्थ और व्यवहारनय को अभूतार्थ कहा गया है और प्राय: सम्पूर्ण संसार भूतार्थ के ज्ञान से विमुख ही है।" पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के उक्त कथन में आचार्य अमृतचन्द्र ने निश्चयनय को भूतार्थ कहा है और समयसार की ग्यारहवीं गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द ने शुद्धनय को भूतार्थ कहा है। निश्चयनय में तो निश्चयनय के चारों ही भेद गर्भित होते हैं, पर शुद्धनय में अशुद्धनिश्चयनय नहीं आता । इसप्रकार इन दोनों कथनों में अन्तर दिखाई देता है । अत: प्रश्न यह है कि यहाँ किस नय को ग्रहण किया जाय ? उत्तर - दोनों कथनों में कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही स्थानों पर परमशुद्धनिश्चयनय ही ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि सम्पूर्ण संसार परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत त्रिकाली ध्रुव ज्ञायकभाव से ही विमुख है और उसी के आश्रय से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी के विचार भी द्रष्टव्य हैं 114 - "पंचाध्यायी में तो ऐसा कहा है कि जो निश्चयनय के दो भेद करते हैं, वे सर्वज्ञ की आज्ञा के बाहर हैं । वही बात यहाँ कहते हैं कि त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा ध्रुव - अखण्ड - एकरूप भूतार्थ सत्वस्तु या उसको जाननेवाला ज्ञानांश ही शुद्धनय है और वह एक ही है, उसके दो भेद नहीं हैं। पर्यायसहित या रागसहित आत्मा को जानना सो निश्चय - ऐसी बात यहाँ नहीं है । यहाँ त्रिकाली ध्रुव एकरूप शुद्ध ज्ञायकरूप ही सत्यार्थ है और उसे जाननेवाला शुद्धनय भी एक ही है, उसके दो भेद नही है । " - प्रश्न मूल गाथा में व्यवहारनय को अभूतार्थ एवं शुद्धनय को भूतार्थ कहा गया है; परन्तु अशुद्धनिश्चयनय को न भूतार्थ कहा है और न ही अभूतार्थ ही कहा है; उसके बारे में तो आचार्यदेव मौन हैं। फिर १. प्रवचनरत्नाकार (गुजराती), भाग १, पृष्ठ १३९
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy