SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार अनुशीलन 102 तो आप जानते ही हैं कि देवगति में संयम नहीं होता; अत: उनका गुणस्थान भी चौथे से ऊपर नहीं होता। यद्यपि यह सत्य है कि चौथे से बारहवें गुणस्थान तक के जीव श्रुतकेवली हो सकते हैं; तथापि इसका आशय यह कदापि नहीं कि चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक का प्रत्येक व्यक्ति श्रुतकेवली होता है; क्योंकि श्रुतकेवली होने के लिए स्वसंवेदनज्ञानी और द्वादशांग का पाठी – दोनों शर्ते पूरी होना अनिवार्य है। प्रश्न - जब चौथे गुणस्थान में श्रुतकेवली हो सकते हैं तो फिर तो पंचमकाल में भी श्रुतकेवली हो सकते होंगे; क्योंकि पंचमकाल में भी छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले भावलिंगी संत हो सकते हैं, होते भी हैं। उत्तर - हाँ, हाँ, क्यों नहीं? अवश्य हो सकते हैं; क्योंकि अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु पंचमकाल में ही हुए हैं। उनके पहले भी अनेक श्रुतकेवली पंचमकाल में हुए हैं, जिनकी चर्चा जिनागम में है। अतः 'अभी श्रुतकेवली नहीं होते' - आचार्य जयसेन के इस वाक्य में समागत 'अभी' शब्द का अर्थ अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के बाद का काल ही लेना चाहिए। ___ 'अभी श्रुतकेवली नहीं होते' – इस कथन से यह अर्थ निकालना कि अभी स्वसंवेदन के बल से आत्मानुभव भी नहीं होता - यह भी ठीक नहीं है और आत्मानुभव होता है, इसलिए अभी निश्चयश्रुतकेवली भी होते हैं - यह भी ठीक नहीं है। जब भद्रबाहु श्रुतकेवली के बाद कोई श्रुतकेवली हुआ ही नहीं तो फिर अभी भी भावश्रुतकेवली होने की बात कहाँ टिकती है? इसीप्रकार जब पंचमकाल के अन्त तक भावलिंगी मुनिराजआर्यिकाएं एवं सम्यग्दृष्टि-अणुव्रती श्रावक-श्राविकायें होना सुनिश्चित है तो फिर अभी स्वसंवेदनरूप आत्मज्ञान का अभाव कैसे हो सकता है?
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy