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________________ 99 गाथा ९ १० ध्यान रहे - ये दोनों ही नय एक साथ एक ही समय में एक ही व्यक्ति पर घटित होते हैं, अन्य-अन्य व्यक्तियों पर नहीं, अन्य-अन्य समय पर भी नहीं। जो व्यक्ति जिस समय आत्मा को जानने के कारण निश्चयश्रुतकेवली हैं; वही व्यक्ति उसीसमय द्वादशांगरूप श्रुत का विशेषज्ञ होने के कारण व्यवहार श्रुतकेवली भी है। इसीप्रकार जो व्यक्ति जिससमय द्वादशांग का पाठी होने से व्यवहार श्रुतकेवली है, वही व्यक्ति उसीसमय आत्मज्ञानी होने से निश्चयश्रुतकेवली भी है। उनमें न व्यक्तिभेद है और न समयभेद ही। __इसीप्रकार के प्रयोग केवली भगवान के बारे में भी उपलब्ध होते हैं। नियमसार में लिखा है - "जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं। केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ॥१५९ ।। अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं। जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ॥१६६ ॥ लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं। जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ॥ १६९॥ व्यवहारनय से. केवली भगवान सभी को जानते-देखते हैं और निश्चयनय से केवली भगवान मात्र आत्मा को ही जानते-देखते हैं । केवली भगवान निश्चय से आत्मस्वरूप को ही देखते-जानते हैं, लोकालोक को नहीं। यदि कोई व्यक्ति ऐसा कहे तो उसमें क्या दोष है? तात्पर्य यह है कि ऐसा कहने में भी कोई दोष नहीं है । केवली भगवान व्यवहार से लोकालोक को देखते-जानते हैं, आत्मा को नहीं। यदि कोई व्यक्ति ऐसा कहता है तो उसमें क्या दोष है? तात्पर्य यह है कि ऐसा कहने में भी कोई दोष नहीं है।" इसीप्रकार का भाव कलश में भी आया है, जो इसप्रकार है -
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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