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________________ 97 गाथा ९-१० व्यवहारनय ज्ञान (सर्वश्रुतज्ञान) को जानता है और निश्चय ज्ञानी (आत्मा) को। ज्ञान को जाना, सो ज्ञानी को ही जाना; इस नीति के अनुसार व्यवहार परमार्थ का ही प्रतिपादक है। इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका में लिखते हैं - "जो भावश्रुतरूप स्वसंवेदनज्ञान के बल से शुद्धात्मा को जानते हैं, वे निश्चयश्रुतकेवली हैं और जो शुद्धात्मा का अनुभव नहीं करते, शुद्धात्मा को नहीं भाते; केवल द्वादशांगरूप बाह्य विषय को ही जानते हैं, वे व्यवहारश्रुतकेवली हैं। प्रश्न -तब तो स्वसंवेदन के बल से इस काल में भी श्रुतकेवली होते होंगे? उत्तर -नहीं, ऐसी बात नहीं है ; क्योंकि पूर्व पुरुषों को जिसप्रकार का शुक्लध्यानरूप स्वसंवेदनज्ञान होता था, उसप्रकार का स्वसंवेदनज्ञान अभी नहीं है, किन्तु यथायोग्य धर्मध्यान अभी भी है।" प्रश्न -आचार्य जयसेन के उक्त कथन में यह कहा गया है कि जो शुद्धात्मा का अनुभव नहीं करते, शुद्धात्मा को नहीं भाते, केवल द्वादशांगरूप बाह्य विषय को ही जानते हैं, वे व्यवहार श्रुतकेवली हैं; तो क्या द्वादशांग के पाठी श्रुतकेवली आत्मा को भी नहीं जानते, आत्मानुभवी नहीं होते? उत्तर -अरे भाई ! ऐसी बात नहीं है; क्योंकि आत्मा के अनुभव के बिना तो कोई द्वादशांग का पाठी हो ही नहीं सकता। जिनागम का यह कथन तो सर्व प्रसिद्ध ही है कि जिन्हें आत्मा का अनुभव नहीं है, स्वसंवेदन ज्ञान नहीं है, सम्यग्दर्शन नहीं है; उन्हें ग्यारह अंग और नौ पूर्व से अधिक का ज्ञान नहीं हो सकता। जब मिथ्यादृष्टि को ग्यारह
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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