SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का होनेवाला धार्मिक व्यवहार व्यवहार सम्यग्दर्शन है। ऐसी स्थिति में उनके आगे-पीछे होने का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। चिट्ठी का समापन करते हुए पण्डितजी कहते हैं ह्र "जो सम्यक्त्व संबंधी और अनुभव संबंधी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्षादिक के प्रश्न तुमने लिखे थे, उनका उत्तर अपनी बुद्धि अनुसार लिखा है; तुम भी जिनवाणी से तथा अपनी परिणति से मिलान कर लेना। अर भाईजी, विशेष कहाँ तक लिखें,जो बात जानते हैं, वह लिखने में नहीं आती। मिलने पर कुछ कहा भी जाय, परन्तु मिलना कर्माधीन है; इसलिए भला यह है कि चैतन्यस्वरूप के अनुभव का उद्यमी रहना । वर्तमानकाल में अध्यात्मतत्त्व तो आत्मख्याति-समयसार ग्रंथ की अमृतचन्द्र आचार्यकृत संस्कृतटीका ह्र में है और आगम की चर्चा गोम्मटसार में है तथा और अन्य ग्रन्थों में है। जो जानते हैं, वह सब लिखने में आवे नहीं; इसलिए तुम भी अध्यात्म तथा आगम ग्रन्थों का अभ्यास रखना और स्वरूपानन्द में मग्न रहना । और तुमने विशेष ग्रन्थ जाने हो सो मुझको लिख भेजना । साधर्मियों को तो परस्पर चर्चा ही चाहिए और मेरी तो इतनी बुद्धि है नहीं, परन्तु तुम सरीखे भाइयों से परस्पर विचार है सो बड़ी वार्ता है। जबतक मिलना नहीं हो, तबतक पत्र तो अवश्य ही लिखा करोगे। मिती फागुन बदी ५, सं. १८११।" उक्त प्रकरण का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “पत्र के अन्त में पण्डित श्री टोडरमलजी निर्मानतापूर्वक लिखते हैं कि ये उत्तर मैंने मेरी बुद्धि के अनुसार लिखे हैं, उन्हें जिनवाणी के साथ तथा अपनी परिणति के साथ तुम मिलान करना। प्रारम्भ में लिखा था कि चिदानन्दघन के अनुभव से तुमको सहजानन्द की वृद्धि चाहता हूँ और यहाँ अन्त में लिखते हैं कि निज स्वरूप में मग्न रहना। तथा स्वयं अपने को तत्त्व के अभ्यास का विशेष प्रेम होने से १. रहस्यपूर्णचिट्ठी : मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ३४९ २. अध्यात्म संदेश, पृष्ठ १२६ सातवाँ प्रवचन १११ लिखते हैं कि कोई विशेष ग्रन्थ तुम्हारे जानने में आये हों तो मुझे लिख भेजना। साधर्मियों के तो एक-दूसरे से धर्म-स्नेहपूर्वक ऐसी धर्मचर्चा ही होना चाहिए। साधर्मी के साथ चर्चा-वार्ता, प्रश्न-उत्तर करने से विशेष स्पष्टता होती है, कहीं सूक्ष्म फर्क हो तो वह ख्याल में आ जाता है और ज्ञान की विशेष स्पष्टता होती है।" पण्डितजी ने मुलतानवाले भाइयों की शंकाओं के जो समाधान प्रस्तुत किये हैं; वे सभी आगम के अनुसार ही हैं और उन्हें तर्क की कसौटी पर भी कसा जा सकता है। __यह समझने-समझाने की भावना से गुरु-शिष्य या साधर्मी भाइयों के बीच होनेवाली वीतरागकथा (चर्चा) होने से पण्डितजी ने उदाहरणों के माध्यम से भी अपनी बात स्पष्ट की है; क्योंकि विभिन्न मतवाले विद्वानों के बीच जीतने की इच्छा से की जानेवाली विजिगीसुकथा (चर्चा) में तो उदाहरणों का प्रयोग वर्जित ही रहता है। यद्यपि उन्हें अपने ज्ञान और प्रस्तुतीकरण पर पूरा भरोसा था; तथापि वे विनम्रतावश लिखते हैं कि मेरे दिये गये उत्तरों को आगम से मिलान करके ही स्वीकार करना । न केवल आगम से अपितु अपनी परिणति से भी मिलान करना। यह उसीप्रकार की सलाह है कि जैसी सलाह प्रत्येक व्यापारी अपनी सन्तान को देता है कि हम से भी पैसों का कुछ लेन-देन करो तो गिनकर देना और गिनकर ही लेना। इसीप्रकार पण्डितजी की ही नहीं; प्रत्येक ज्ञानी की सभी साधर्मी भाइयों को यही सलाह होती है कि किसी के भी कथन को शास्त्रों से मिलान करके, तर्क की कसौटी पर कसकर और आत्मानुभव से मिलान करके ही स्वीकार करना चाहिए। पण्डित टोडरमलजी के उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि उनके द्वारा दिये समाधान आगम के अनुकूल तो हैं ही; ज्ञानीजनों की परिणति की कसौटी पर भी खरे उतरनेवाले हैं; क्योंकि उन्होंने स्वयं अपनी परिणति की कसौटी पर उन्हें पहले ही परख लिया है। १. अध्यात्म संदेश, पृष्ठ १२८
SR No.009470
Book TitleRahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy