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________________ १०० रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का जिसप्रकार स्पष्टता के आधार पर स्वप्न में देखने को भी प्रत्यक्ष कह दिया जाता है; उसीप्रकार यहाँ भी आत्मा के जानने को व्यवहार से प्रत्यक्ष देखा कहा गया है। ___अरे, भाई ! स्वप्न में देखना तो सही नहीं है। उसके समान कहकर तो तुम अनुभव के प्रत्यक्षपने को एकदम अभूतार्थ कह रहे हो। जब हमारे पास प्रत्यक्ष ज्ञान है ही नहीं, फिर भी प्रत्यक्ष कहना किसप्रकार का व्यवहार होगा। ह्न इस बात को उदाहरण से पण्डितजी ने स्पष्ट किया है। जिसप्रकार स्वप्न में वह व्यक्ति था ही नहीं; उसीप्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान है ही नहीं तो फिर क्या कहें ? अरे, भाई ! मति-श्रुतज्ञान परोक्ष हैं और उनके द्वारा ही आत्मा को जाना गया है। आत्मा का ज्ञान तो प्रत्यक्ष हआ ही नहीं, आनन्द का वेदन प्रत्यक्ष जैसा हुआ है। यही अपेक्षा है। जहाँ जो अपेक्षा हो उसे सावधानी पूर्वक सही-सही समझना चाहिए। उसको प्रत्यक्ष कहने का एक कारण यह भी हो सकता है कि उसे कोई काल्पनिक न कहने लगे, कल्पनालोक में विचरण करना न मानने लगे। लोक में प्रत्यक्ष देखे गये पदार्थों का विश्वास जिस दृढ़ता के साथ किया जाता है; वैसा पढ़ी-सुनी बात का नहीं। कोई इसे पढ़ी-सुनी बात के समान ही न मानने लगे, उससे कुछ अधिक है यह ह यह बताने के लिए भी उसे प्रत्यक्ष कहा जा सकता है। तात्पर्य यह है कि उसकी सत्ता वास्तविक है। वह आनन्द भी सिद्धों की जाति के आनन्द के समान है। अगले प्रश्न और उनके उत्तर पण्डितजी इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं ह्र "यहाँ प्रश्न ह्र ऐसा अनुभव कौन गुणस्थान में होता है ? उसका समाधान ह चौथे से ही होता है, परन्तु चौथे में बहुत काल के अन्तराल से होता है और ऊपर के गुणस्थानों में शीघ्र-शीघ्र होता है। फिर यहाँ प्रश्न ह्न अनुभव तो निर्विकल्प है, वहाँ ऊपर के और नीचे के गुणस्थानों में भेद कैसे होगा? उसका समाधान ह्न परिणामों की मग्नता में विशेष है। जैसे दो सातवाँ प्रवचन १०१ पुरुष नाम लेते हैं और दोनों ही के परिणाम नाम में हैं; वहाँ एक तो मग्नता विशेष है और एक को थोड़ी है ह्र उसीप्रकार जानना। फिर प्रश्न ह्न यदि निर्विकल्प अनुभव में कोई विकल्प नहीं है तो शुक्लध्यान का प्रथम भेद पृथक्त्ववितर्कवीचार कहा, वहाँ 'पृथक्त्ववितर्क' ह्र नाना प्रकार के श्रुत का वीचार' ह्र अर्थ-व्यंजन-योगसंक्रमण ह्न ऐसा क्यों कहा? ___समाधान ह्न कथन दो प्रकार है ह्र एक स्थूलरूप है, एक सूक्ष्मरूप है। जैसे स्थूलता से तो छठवें ही गुणस्थान में सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत कहा और सूक्ष्मता से नववें गुणस्थान तक मैथुन संज्ञा कही; उसीप्रकार यहाँ अनुभव में निर्विकल्पता स्थूलरूप कहते हैं। तथा सूक्ष्मता से पृथक्त्ववितर्क वीचारादिक भेद व कषायादिक दसवें गुणस्थान तक कहे हैं। वहाँ अपने जानने में व अन्य के जानने में आये ऐसे भाव का कथन स्थूल जानना तथा जो आप भी न जाने और केवली भगवान ही जानें ह्र ऐसे भाव का कथन सूक्ष्म जानना । चरणानुयोगादिक में स्थूलकथन की मुख्यता है और करणानुयोग में सूक्ष्मकथन की मुख्यता है ह्न ऐसा भेद अन्यत्र भी जानना । इसप्रकार निर्विकल्प अनुभव का स्वरूप जानना।" उक्त प्रश्नों का उत्तर आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न "चतुर्थ गुणस्थान का प्रारम्भ ही ऐसे निर्विकल्प स्वानुभवपूर्वक होता है; सम्यग्दर्शन कहो, चौथा गुणस्थान कहो या धर्म का प्रारम्भ कहो ह्र वह ऐसे स्वानुभव के बिना नहीं होता। चौथे गुणस्थान में ऐसा अनुभव कभी-कभी होता है, बाद में जैसेजैसे भूमिका बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे काल की अपेक्षा से बार-बार होता है और भाव की अपेक्षा से लीनता भी बढ़ती जाती है। स्वानुभव की जाति तो सभी गुणस्थानों में एक है, चैतन्यस्वभाव १. रहस्यपूर्णचिट्ठी : मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ३४७ २. अध्यात्म संदेश, पृष्ठ ९६ ३. वही, पृष्ठ ९८
SR No.009470
Book TitleRahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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