SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का भेद सम्यक्त्व में नहीं है। सम्यक्त्व तो शुद्ध आत्मा की प्रतीतिरूप है, यह प्रतीति सिद्ध भगवान को व तिर्यंच सम्यग्दृष्टि को एक-सी ही है। जैसी शुद्धात्मा की प्रतीति सिद्ध भगवान के सम्यक्त्व में है, चौथे गुणस्थानवाले सम्यग्दृष्टि को भी वैसी ही शुद्धात्मा की प्रतीति है, उसमें कुछ भी फर्क नहीं । सिद्ध भगवान का सम्यक्त्व प्रत्यक्ष व चौथे गुणस्थानवाले का सम्यक्त्व परोक्ष ह्र ऐसा भेद नहीं है । अथवा स्वानुभव के समय सम्यक्त्व प्रत्यक्ष और बाहर में शुभाशुभ उपयोग के समय सम्यक्त्व परोक्ष ह्न ऐसा भी नहीं है। चाहे शुभाशुभ में प्रवर्तता हो या स्वानुभव के द्वारा शुद्धोपयोग में प्रवर्त्तता हो, सम्यग्दृष्टि का सम्यक्त्व तो सामान्य वैसा का वैसा ही है अर्थात् शुभाशुभ के समय सम्यक्त्व में कोई मलिनता आ गई और स्वानुभव के समय सम्यक्त्व में कोई निर्मलता बढ़ गई ह्र ऐसा नहीं है। एक बार भी स्वानुभूति के द्वारा जिसने शुद्धात्मा की प्रतीति की, उसको सम्यग्दर्शन हुआ सो हुआ, बाद में जब वह स्वानुभव में हो, त उसकी प्रतीति का जोर बढ़ जाय और जब बाहर शुभाशुभ में हो, तब उसकी प्रतीति ढीली पड़ जाय ह्न ऐसा नहीं है एवं निर्विकल्प दशा के समय सम्यक्त्व प्रत्यक्ष व सविकल्प दशा के समय सम्यक्त्व परोक्ष ह्न ऐसा प्रत्यक्ष - परोक्षपना भी सम्यक्त्व में नहीं है अथवा निर्विकल्पदशा के समय निश्चयसम्यक्त्व व सविकल्प दशा के समय अकेला व्यवहार सम्यक्त्व ह्र ऐसा भी नहीं है । धर्मी को सविकल्पदशा हो या निर्विकल्प दशा ह्न दोनों समय में शुद्धात्मा की प्रतीतिरूप निश्चयसम्यक्त्व तो सतत् रूप से बना रहता है। यदि निश्चयसम्यक्त्व न हो तो साधकपना ही न रहे, मोक्षमार्ग ही न रहे। हाँ, निश्चयसम्यक्त्व में भले किसी को औपशमिक हो, किसी को क्षायोपशमिक हो और किसी को क्षायिक हो; लेकिन शुद्धात्मा की प्रतीति तो तीनों में एक सी है। १. अध्यात्म संदेश, पृष्ठ ७२-७३ २. वही, पृष्ठ ७४-७५ छठवाँ प्रवचन इसप्रकार अनुमान व नय प्रमाणादिक के विचार तत्त्वनिर्णय के काल में होते हैं; परन्तु मात्र विचार से ही स्वानुभव नहीं हो जाता । वस्तुस्वरूप का निर्णय करके बाद में जब स्वद्रव्य में परिणाम को एकाग्र करे, तभी स्वानुभव होता है। इस स्वानुभव के काल में नयप्रमाणादि के विचार नहीं रहते। नय प्रमाणादि के विचार तो परोक्षज्ञान हैं और स्वानुभव तो कथंचित् प्रत्यक्ष है । पहले आगम अनुमान आदि परोक्षज्ञान से जिस स्वरूप को जाना एवं विचार में लिया, उसमें परिणाम एकाग्र होने पर स्वानुभव प्रत्यक्ष होता है। इस स्वानुभव में पहले से अन्य कोई स्वरूप जानने में आया ह्र ऐसा नहीं है; अतः ज्ञान के स्वानुभव में जानपने की अपेक्षा से विशेषता नहीं है, परन्तु परिणाम की मग्नता है ह्र यही विशेषता है । जिसने पहले एक बार अनुभव के द्वारा स्वरूप को जान लिया हो, इसकी धारणा टिकायी हो; वह फिर से इसका स्मरण करे ह्न 'पहले आत्मा का अनुभव हुआ, तब ऐसा आनन्द था, ऐसी शान्ति थी, ऐसा ज्ञान था, ऐसा वैराग्यभाव था, ऐसी एकाग्रता थी, ऐसा उद्यम था ह्र ऐसे इसके स्मरण के द्वारा चित्त को एकाग्र करके धर्मी जीव फिर से उसमें अपने परिणाम को लगाते हैं। मति-श्रुतज्ञान ने आत्मा का जो स्वरूप जाना, उसमें ही वह मग्न होता है; इसमें जानपने की अपेक्षा से फर्क नहीं है, परन्तु परिणाम की मग्नता की अपेक्षा से फर्क है। मति श्रुतज्ञान का उपयोग अन्तर्मुख होकर जब स्वानुभव करता है; तब उस निर्विकल्पदशा में कोई अपूर्व आनन्द का अनुभव होता है । जानपने की अपेक्षा भले ही वहाँ विशेषता न हो, किन्तु आनन्द के अनुभव आदि की अपेक्षा से उसमें जो विशेषता है, वह अब प्रश्नउत्तर के द्वारा दर्शाते हैं।" १. अध्यात्म संदेश, पृष्ठ ८६ २. वही, पृष्ठ ८७ ३. वही, पृष्ठ ८७
SR No.009470
Book TitleRahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy