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________________ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का यद्यपि यह परम सत्य है कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति आत्मानुभूति के काल में ही होती है; तथापि यह आवश्यक नहीं है कि अनुभूति के बिना सम्यग्दर्शन का अस्तित्व ही न रहे। आत्मानुभूति के समय सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाने के बाद उपयोग आत्मा से बाहर आ जाता है, शुभभावों में चला जाता है, कालान्तर में अशुभभावों में भी चला जाता है, भोगों में चला जाता है, युद्ध में भी जा सकता है; चक्रवर्ती भरत एवं रामचन्द्र आदि के चरित्रों में यह सब मिलता भी है। ऐसे समय में शुद्धोपयोगरूप आत्मानुभूति नहीं रहती; पर सम्यग्दर्शन कायम रहता है; क्योंकि सम्यग्दर्शन श्रद्धागुण की पर्याय है और आत्मानुभूति ज्ञान, श्रद्धा, चारित्र, आनन्द, वीर्य आदि अनेक गुणों का परिणमन है। वस्तुतः बात यह है कि न मालूम हमारे चित्त में यह कहाँ से समा गया है कि आत्मानुभूति के बिना सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान का अस्तित्व ही संभव नहीं है। करणानुयोग के अनुसार चौथे गुणस्थान में होनेवाले बंधअबंध, बंधव्युच्छत्ति, संवर, निर्जरा की जो चर्चा है; वह सम्यग्दर्शन के आधार पर है, अनुभूति के आधार पर नहीं। चौथे गुणस्थान की भूमिका का सही स्वरूप ख्याल में नहीं होने से भी यह प्रश्न उपस्थित होता है। श्रद्धा और चारित्र के भेद को भलीभाँति न समझने के कारण भी इसप्रकार के विकल्प खड़े होते हैं। ___ इसीप्रकार हमें आत्मानुभूति और सम्यग्दर्शन की इतनी महिमा आ गई है कि जिसके आश्रय से अनुभूति होती है, सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है; जिसमें अपनापन स्थापित करने का नाम सम्यग्दर्शन, जिसे निज रूप जानने का नाम सम्यग्ज्ञान और जिसमें रमने का नाम सम्यक्चारित्र है; वह त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा भी हमारी दृष्टि से ओझल हो रहा है। सर्वाधिक महिमावंत परमपदार्थ तो दृष्टि का विषयभूत, परमशद्धनिश्चयनय का विषय और ध्यान का ध्येयरूप निज त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा ही है। अत: हमें उसी की शरण में जाना चाहिए।. यह आत्मा अनन्तसुख जैसे अनन्त गुणों का धनी होकर भी अपरिचय एवं असेवन के कारण रंचमात्र सुख-लाभ प्राप्त नहीं कर पा रहा है। ह परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ २१० चौथा प्रवचन संतप्त मानस शांत हों, जिनके गुणों के गान में। वे वर्द्धमान महान जिन, विचरें हमारे ध्यान में ।। आत्मानुभूति और सम्यग्दर्शन को लोगों ने एक ही समझ लिया है। पर यह समझ सही नहीं है; क्योंकि शुभाशुभभाव और शुभाशुभपरिणति के काल में भी सम्यग्दर्शन कायम रहता है। यद्यपि यह परम सत्य है कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति आत्मानुभूति के काल में ही होती है। तथापि सम्यग्दर्शन की सत्ता के लिए आत्मानुभूति आवश्यक नहीं है। जिसने अभी आत्मा का अनुभव किया है, उस व्यक्ति का उपयोग आत्मा से हटकर बाह्य विषयों में, भोगों में, युद्धादि में, उपदेशादि में भी लग जावे; तब भी उसे सम्यग्दर्शन कायम रहता है; क्योंकि सम्यग्दर्शन तो श्रद्धागुण की पर्याय है और वह सम्यग्दर्शन निकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा में अपनापन हो जाने रूप है। तात्पर्य यह है कि आत्मानुभूति के काल में ज्ञान ने जिसे निजरूप जाना था, श्रद्धा गुण ने जिस आत्मा में अपनापन स्थापित कर लिया था और जो उस समय ध्यान का ध्येय बना था; उस निजात्मा में दृढ़ता से स्थापित अपनेपन का नाम ही सम्यग्दर्शन है। यद्यपि यह बात विगत प्रवचन में स्पष्ट की जा चुकी है; तथापि इसके संबंध में गंभीर मंथन अपेक्षित है; क्योंकि उक्त संदर्भ में विद्यमान अज्ञान की जड़ें बहुत गहरी है।। सम्यग्दृष्टि की सविकल्प अवस्था में जहाँ एक ओर शुभाशुभभाव और शुभाशुभपरिणति दिखाई देती है; वहीं दूसरी ओर अन्तर में मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय के अभावरूप शुद्धपरिणति भी तो विद्यमान रहती है। यद्यपि यह सत्य है कि सविकल्प अवस्था में शुभाशुभ परिणामों के अनुसार बंध होता है; तथापि यह भी सत्य है कि मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय के अभावपूर्वक होनेवाली परिणति की शुद्धि के
SR No.009470
Book TitleRahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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