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________________ ३४ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का और व्यवहार तो उसके निरूपण करनेवाली पद्धतियाँ हैं। वास्तविक सम्यग्दर्शन निश्चयसम्यग्दर्शन है और उसके साथ अनिवार्यरूप से होनेवाला व्यवहार, व्यवहारसम्यग्दर्शन है। जब दो सम्यग्दर्शन हैं ही नहीं तो उनकी उत्पत्ति आगे-पीछे कैसे हो सकती है ? मैं आपसे ही पूछता हूँ कि बहू के बेटा और सास के पोता एक साथ होते हैं या आगे-पीछे ? ___ आगे-पीछे हो ही नहीं सकते; क्योंकि बच्चा तो एक ही पैदा हुआ है और बहू के ही हुआ है, सास के तो कुछ हुआ ही नहीं है। जो बहू का बेटा है, वही सास का पोता है। इसीप्रकार सम्यग्दर्शन तो एक ही है. स्वभाव की अपेक्षा कथन करने पर जिसे निश्चयसम्यग्दर्शन कहते हैं: निमित्तादि की अपेक्षा उसी को व्यवहारसम्यग्दर्शन कहते हैं। यदि निश्चयसम्यग्दर्शन को सातवें गुणस्थान से मानेंगे तो फिर क्षायिक सम्यग्दर्शन को भी व्यवहारसम्यग्दर्शन ही मानना होगा; क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन चौथे से छठवें गणस्थान में भी होता है। शायद, यह आपको भी स्वीकृत न होगा; क्योंकि वह क्षायिक सम्यग्दर्शन मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों के क्षय से होता है। जब मिथ्यात्व का पूर्णतः क्षय हो गया हो; तब भी निश्चयसम्यग्दर्शन न हो ह्र यह बात किसी को भी कैसे स्वीकृत हो सकती है। अरे, भाई ! सच्चे देव-शास्त्र-गरु की सच्ची श्रद्धा भी आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टियों को ही होती है। जिसने अभी देव-शास्त्र-गरु के स्वरूप को समझा ही नहीं है, उसे देव-शास्त्र-गुरु की सच्ची श्रद्धा कैसे हो सकती है ? सामान्यजन तो ऐसा समझते हैं कि हमें देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा नहीं होती तो हम उनके दर्शन, उनकी पूजा, उनकी सेवा-शुश्रूषा क्यों करते, कैसे करते ? अतः हमें देव-शास्त्र-गुरु की सच्ची श्रद्धा तो है ही और देव-शास्त्र-गुरु की सच्ची श्रद्धा है लक्षण जिसका, ऐसा व्यवहारसम्यग्दर्शन भी है ही। अब रही बात निश्चयसम्यग्दर्शन की; सो वह तो तीसरा प्रवचन सातवें गुणस्थान में होता है; अतः हमें होने का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः अब अभी तो उक्त निश्चयसम्यग्दर्शन के बारे में कुछ सोचने की, समझने की जरूरत ही नहीं है। ध्यान रहे, मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि उन्होंने जिन्हें देव-गुरु-शास्त्र माना है, वे सच्चे देव-शास्त्र-गुरु नहीं हैं। हो सकता है कि वे सच्चे ही हों; पर बात यह है कि यह अज्ञानी जगत देव-शास्त्र-गुरु के सही स्वरूप को नहीं जानता; इसकारण उन्हें सच्चे स्वरूप की कसौटी पर कसकर स्वीकार नहीं करता, अपितु बाह्य बातों के आधार पर ही मान लेता है। जिनकी आराधना की जा रही है, उन देव-शास्त्र-गुरु के सच्चे होने पर भी उनके सही स्वरूप से अनभिज्ञ होने के कारण आराधक की श्रद्धा सच्ची नहीं होती; इसलिए इसे व्यवहारसम्यग्दर्शन भी नहीं माना जा सकता। बस यह तो यही कहता है कि पिछी कमण्डलवाले तुमको लाखों प्रणाम । इसने तो गुरु की पहिचान मात्र पीछी और कमण्डल से ही की है, शेष अंतरंग गुणों से तो इसे कुछ लेना-देना ही नहीं है। यह तो बड़े ही वीतरागभाव से कहता है कि हम साधुओं में अच्छे-बुरे का भेद नहीं करते, हम अच्छे-बुरे के झगड़े में नहीं पड़ते। हमारे लिए तो सभी अच्छे हैं, सच्चे हैं। हम तो सभी को मानते हैं। हम किसी से राग-द्वेष नहीं रखते; हम से तो सभी अच्छे ही हैं न ? इसतरह ये लोग अपने अज्ञान को वीतरागभाव का नाम देते हैं और सही-गलत के निर्णय करने को झगड़े में पड़ना मानते हैं। ये लोग गुरु के समान ही देव और शास्त्र के संबंध में भी कुछ नहीं समझते । सच्चे देव वीतरागी और सर्वज्ञ होते हैं और उनकी वाणी के आधार पर बने शास्त्र वीतरागता के पोषक होते हैं व इस बात को समझने की बात तो बहुत दूर, सुनना भी नहीं चाहते; क्योंकि इस चर्चा को तो ये लोग झगड़ा मानकर बैठे हैं। ऐसे लोग रागी और वीतरागी देव में कोई अन्तर ही नहीं समझते। उन्हें तो जैसे अरिहंत-सिद्ध, वैसे क्षेत्रपाल-पद्मावती । इसीप्रकार वे लोग शास्त्रों में भी अन्तर नहीं समझते। उनके लिए तो सभी पुस्तकें शास्त्र ही हैं।
SR No.009470
Book TitleRahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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