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________________ १७० प्रवचनसार अनुशीलन सम्पूर्ण रागादि विकल्पजालरहित शुद्धात्मानुभूति लक्षण सम्यग्दर्शन -ज्ञानपूर्वक छद्यस्थ का वीतरागचारित्र ही कार्यकारी है; क्योंकि उससे ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है; इसलिए उसमें ही प्रयत्न करना चाहिए।" प्रश्न ह्न यहाँ कहा गया है कि ध्यान और चारित्र केवली भगवान के उपचार से कहे गये हैं। यह भी कहा गया है कि छद्यस्थों का वीतराग चारित्र ही कार्यकारी है। उक्त सन्दर्भ में प्रश्न यह है कि शुक्लध्यान के अन्तिम दो पाये तो सयोग केवली और अयोग केवलियों के ही होते हैं तथा उनके पूर्ण वीतरागता भी है ही ह्र ऐसी स्थिति में यह कैसे माना जा सकता है कि सयोग केवली और अयोग केवलियों के ध्यान व चारित्र कहना उपचरित कथन है। यह भी कैसे जाना जा सकता है कि सयोग केवलियों के एकदेश चारित्र है; क्योंकि परिपूर्ण चारित्र तो अयोगी के अन्तिम समय में होगा? शास्त्रों में यह भी तो लिखा है कि पंचम गुणस्थान वालों के एकदेश चारित्र अर्थात् एकदेशव्रत और मुनिराजों के सकलचारित्र अर्थात् महाव्रत होते हैं। उत्तर ह्न अरे भाई, यह सब सापेक्ष कथन हैं। जिनागम में विविध प्रकरणों में विविध अपेक्षाओं से विविधप्रकार के कथन किये जाते हैं। अतः जहाँ जो अपेक्षा हो, उसे सावधानी से समझना चाहिए। यहाँ अपेक्षा यह है कि हम छद्मस्थों को तो वही ध्यान, ध्यान है और वही चारित्र चारित्र है: जो हमें अतीन्द्रियसुख और अतीन्द्रियज्ञान (केवलज्ञान) की प्राप्ति कराये। ___ पण्डित देवीदासजी दोनों गाथाओं के भाव को एक-एक छन्द में प्रस्तुत करते हैं और वृन्दावनदासजी २४३वीं गाथा का भाव एक छन्द में और २४४वीं गाथा का भाव चार छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जो सभी मूलत: पठनीय हैं। स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "जो मुनि अपने चैतन्य स्वभाव का आश्रय छोड़कर शरीर, मन, वाणी से लाभ मानते हैं। पुस्तक से ज्ञान होगा, यात्रा करने से धर्म होगा ह्र गाथा २४३-२४४ १७१ ऐसा मानकर निमित्त तथा पुण्य-पाप के भावों का आश्रय करते हैं, वे मोही हैं। परद्रव्य तथा पुण्य-पाप से निवृत्त होने पर धर्म होता है, ऐसा न मानकर पर में लाभ-नुकसान माने यह मिथ्या है। यहाँ मुख्यता से मुनिराज और गौणरूप से श्रावक की बात है।' पर को समझाऊँ अथवा पर के कारण समझ में आया ह्र ऐसा मानने वाला 'मैं स्वयं ज्ञानस्वभावी तत्त्व हूँ', इस बात को भूलकर पर में ही अटकता है और नवीन कर्मों का बँध करता है, इसप्रकार पर तथा विकल्प इत्यादि में एकाग्र होने से उसे मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं होती है।' ___ ज्ञानी प्रतिसमय अपने ज्ञायकभाव को ऊर्ध्व रखता है। पर को तथा विकार को अग्र नहीं करता तथा ज्ञान में जो-जो ज्ञेय जानने में आते हैं, उन ज्ञेयों का आश्रय भी नहीं करता है; वह तो मात्र ज्ञान स्वभाव का आश्रय करता है। बाह्य पदार्थ अनुकूल व प्रतिकूल नहीं है; किन्तु स्वयं का रागरहित ज्ञानस्वभाव अनुकूल है और विकार प्रतिकूल है। सच्चे श्रद्धा-ज्ञान के कारण धर्मी जीव को एकत्वबुद्धि का राग-द्वेष नहीं होता और जो मुनि विशेष स्थिरता करते हैं, वे मोह-राग-द्वेष रूप नहीं परिणमते तथा कर्मों से भी नहीं बँधते, अपितु मुक्त ही होते हैं।" इसप्रकार इन गाथाओं में दो टूक शब्दों में यह कहा गया है कि ज्ञेयभूत परद्रव्यों का आश्रय करनेवाले, ज्ञानात्मक आत्मा से भ्रष्ट अज्ञानी जीव कर्मों से बंधते हैं और ज्ञेयभूत परद्रव्य का आश्रय नहीं करनेवाले, ज्ञानात्मक आत्मा का आश्रय कर कर्मों से मुक्त होते हैं; इसलिए अनेकाग्रता मोक्षमार्ग नहीं है और एकाग्रता मोक्षमार्ग है। इसप्रकार चरणानुयोगसूचकचूलिका नामक महाधिकार में समागत मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार समाप्त होता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ-२७६-२७७ ३. वही, पृष्ठ-२८१ २. वही, पृष्ठ-२७८ ४. वही, पृष्ठ २८३
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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