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________________ ८ प्रवचनसार अनुशीलन करके पंच परमेष्ठी को नमस्कार कर हमने जैसा मुनिपना अंगीकार किया है, वैसा मुनिपना अंगीकार करो। वह मुनिपना अंगीकार करने से जैसा स्वरूप हमने अनुभव किया है, वैसा ही तुम्हें भी प्राप्त होगा, उसके लिए हम यहीं खड़े है, तुम चले आओ। तत्त्वज्ञान बिना सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता, सम्यग्दर्शन बिना मुनिपना नहीं हो सकता और चारित्र बिना मुक्ति नहीं हो सकती; अतः सर्वप्रथम आत्मा का श्रद्धान-ज्ञान करो पश्चात् सहज रूप से विशेष लीनता होते हुए मुनिपना आता है। हठ करने से मुनिपना नहीं आता। हे भाई! देखो, आचार्य भगवान की सिंह-वृत्ति, उग्र-पुरुषार्थ । आचार्यदेव कहते हैं कि हे जीवों ! आप चले आओ। मोक्षमार्ग के प्रणेता, उसे बतानेवाले हम यहाँ खड़े हैं। " ग्रंथारंभ में आचार्यदेव ने पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करके मोह और क्षोभ से रहित साम्यभाव धारण करने की प्रतिज्ञा की थी और कहा था कि यह साम्यभाव ही चारित्र है, धर्म है। उक्त चारित्र को धारण करने के लिए जिस तत्त्वज्ञान को जानना अति आवश्यक है; उक्त तत्त्वज्ञान की चर्चा ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन और ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकारों में करने के उपरान्त आचार्यदेव कह रहे हैं कि जिसप्रकार ज्ञानतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व को जान कर पंचपरमेष्ठी के नमस्कारपूर्वक हमने चारित्र धारण किया है; यदि तुम दुखों से छूटना चाहते हो तो; उसीप्रकार ज्ञानतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व को समझ कर पंचपरमेष्ठी के स्मरणपूर्वक तुम भी चारित्र धारण करो; क्योंकि सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्र धारण किये बिना दुःखों से छुटकारा संभव नही है, मुक्ति प्राप्त करना संभव नहीं है । चारित्र अंगीकार करने में यदि तुम्हें कुछ भय लग रहा हो तो हम तुमसे कहते हैं कि तुम चिन्ता न करो, तुम्हारा मार्गदर्शन करने के लिए मुक्तिमार्ग के प्रणेताजानकार हम खड़े हैं न ! देखो, आचार्यदेव की वाणी में कितना आत्मविश्वास और करुणा भाव प्रस्फुटित हो रहा है। वे मात्र इस बात को कहते ही नहीं हैं; अपितु अगली गाथाओं और उनकी टीका में मुनिधर्म धारण करने की विधि भी बताते हैं ।। २०१।। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ ९ २. वही, पृष्ठ-९ प्रवचनसार गाथा २०२-२०३ विगत गाथा में कहा गया है कि श्रामण्य को धारण करो और अब इन गाथाओं में बता रहे हैं कि दीक्षा धारण करने के पूर्व दीक्षार्थी को क्याक्या करना चाहिए। सबसे पहले अपने संबंधियों से छुटकारा पाकर पंचाचार धारण करने के लिए आचार्यदेव के पास जाकर अत्यन्त विनयपूर्वक दीक्षा देने की प्रार्थना करनी चाहिए । इन गाथाओं में छुटकारा पाने और दीक्षा ग्रहण करने की विधि का ही निरूपण है। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं ह्र आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं । आसिज णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं । । २०२ ।। समणं गणिं गुणड्ढं कुलरूववयोविसिट्ठमिट्ठदरं । समणेहि तं पि पणदो पडिच्छ मं चेदि अणुगहिदो । । २०३ ।। ( हरिगीत ) वृद्धजन तिय- पुत्र- बंधुवर्ग से ले अनुमति । वीर्य - दर्शन - ज्ञान - तप चारित्र अंगीकार कर || २०२ || रूपकुल वयवान गुणमय श्रमणजन को इष्ट जो । ऐसे गणी को नमन करके शरण ले अनुग्रहीत हो ॥ २०३॥ दीक्षार्थी सबसे पहले बन्धुवर्ग से पूँछकर, माता-पिता आदि बड़ों से एवं स्त्री-पुत्रादि से छूटकर; ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार को अंगीकार करके कुल, रूप तथा वय से विशिष्ट, गुणाढ्य और श्रमणों को अति इष्ट गणी श्रमण से 'मुझे स्वीकार करो' ह्र ऐसा कहकर प्रणाम करता है और अनुग्रहीत होता है। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा का भाव स्पष्ट करते हुए तत्त्वप्रदीपिका टीका में लिखते हैं ह्न "जो श्रमण होना चाहता है; वह पहले अपने बन्धुवर्ग से पूछता है,
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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