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________________ १५८ प्रवचनसार अनुशीलन चागो य अणारंभो विसयविरागो खओ कसायाणं । सो संजमो त्ति भणिदो पव्वज्जाए विसेसेण ||३५|| ( हरिगीत ) अनारंभी त्याग विषयविरक्त और कषाय क्षय । ही तपोधन संतों का सम्पूर्णतः संयम कहा ||३५|| प्रव्रज्या अर्थात् तपश्चरण अवस्था में त्याग, अनारंभ, विषयों से विरक्तता और कषायों के क्षय को विशेष रूप से संयम कहा गया है। इसकी टीका में आचार्य जयसेन त्याग, अनारंभ आदि सभी विशेषणों भाव को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि सब ओर से अपने शुद्धात्मा को ग्रहण कर बहिरंग-अंतरंग परिग्रह की निवृत्ति त्याग है, अपने निष्क्रिय शुद्ध द्रव्य में ठहर कर, मन, वचन और काय संबंधी व्यापार से निवृत्ति अनारंभ है, विषयों से रहित अपने आत्मा की भावना से उत्पन्न सुख में तृप्त होकर पंचेन्द्रिय संबंधी सुख की इच्छा का त्याग विषय -विराग है; कषायरहित शुद्धात्मा की भावना के बल से क्रोधादि कषायों का त्याग कषाय क्षय है। इस गाथा में मात्र इतना ही कहा गया है कि त्याग, अनारंभ, विषयों से विरक्ति और कषायों का क्षय ही संयम है। पर से भिन्न और अपने से अभिन्न इस भगवान आत्मा में प्रदेशभेद, गुणभेद एवं पर्यायभेद का भी अभाव है। भगवान आत्मा के अभेदअखण्ड इस परमभाव को ग्रहण करनेवाला नय ही शुद्धनय है और यही भूतार्थ है, सत्यार्थ है; शेष सभी व्यवहारनय अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। जो व्यक्ति इस शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा को जानता है, वह समस्त जिनशासन का ज्ञाता है; क्योंकि समस्त जिनशासन का प्रतिपाद्य एक शुद्धात्मा ही है, इसके ही आश्रय से निश्चय सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षमार्ग प्रगट होता है। ह्र सारसमयसार, पृष्ठ-४-५ प्रवचनसार गाथा २४० 'आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व भी कार्यकारी नहीं है' ह्र विगत गाथा में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में आत्मज्ञानसहित आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व के युगपदपने की सार्थकता सिद्ध करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंवुडो जिदकसाओ । दंसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो ।। २४० ।। ( हरिगीत ) तीन गुप्ति पाँच समिति सहित पंचेद्रियजयी । ज्ञानदर्शनमय श्रमण ही जितकषायी संयमी ॥ २४० ॥ तीन गुप्ति और पाँच समितियों से सहित, पाँच इन्द्रियों का संवरवाला, कषायों को जीतनेवाला और ज्ञान दर्शन से परिपूर्ण श्रमण संयत कहा गया है। इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है “जो अनेकान्त निकेतन आगम के बल से, समस्त पदार्थों के ज्ञेयाकारों से मिलित विशद एक ज्ञानाकार आत्मा का श्रद्धान और अनुभव (ज्ञान) करता हुआ आत्मा में ही नित्य निश्चलवृत्ति को चाहता हुआ संयम के साधनरूप शरीर को समितियों से अंकुशित प्रवृत्ति द्वारा और पंचेन्द्रियों के निश्चल निरोध द्वारा मन-वचन-काय के व्यापार से विराम को प्राप्त, परद्रव्य में भ्रमण में निमित्तभूत कषायसमूह और आत्मा के परस्पर मिलन के कारण अन्यत्र एकरूप हो जाने पर भी स्वभाव भेद के कारण उसे परद्रव्य में निश्चित करके आत्मा में ही कुशल मल्ल की भांति मर्दन करके अक्रम से उसे मार डालता है; वह पुरुष सकल परद्रव्य से शून्य होने पर भी, विशुद्ध दर्शन - ज्ञानमात्र स्वभावरूप आत्मतत्त्व में नित्य
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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