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________________ १४४ प्रवचनसार अनुशीलन जिसका दूसरा नाम मोक्षमार्ग है ह्र ऐसा सुनिश्चित एकाग्र परिणतिरूप श्रामण्य ही सिद्ध नहीं होता। इससे यह नियम सिद्ध होता है कि आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयम ह्न इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में गाथार्थ तो गाथा और तत्त्वप्रदीपिका टीका के अनुसार ही करते हैं, तथापि तथाहि लिखकर जो स्पष्टीकरण करते हैं; वह इसप्रकार है । "'दोषरहित अपना आत्मा ही उपादेय है' ह ऐसीरुचिरूप सम्यक्त्व जिसे नहीं है, वह परमागम के बल से ज्ञानरूप आत्मा को स्पष्ट जानता हुआ भी सम्यग्दृष्टि नहीं है और ज्ञानी भी नहीं है । इसप्रकार इन दोनों के अभाव से पंचेन्द्रिय विषयों की इच्छा और षट्काय के जीवों के घात से निवृत्त होने पर भी वह संयत नहीं है।" ह्र ऐसा लिखकर भी वे अन्त में निष्कर्ष इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं ह्न "इससे यह निश्चित हआ कि परमागम का ज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतपना ह्र इन तीनों का युगपद्पना (एकसाथ होना) ही मुक्ति का मार्ग है।" पण्डित देवीदासजी तो इस गाथा के भाव को एक छन्द में प्रस्तुत करके ही सन्तोष कर लेते हैं; पर वृन्दावनदासजी गाथा और टीका के भाव को १ मनहरण, १ माधवी और १० दोहा ह्र इसप्रकार १२ छन्दों में विस्तार से समझाते हैं; जो सभी मूलत: पठनीय हैं। नमूनों के तौर पर एक दोहा इसप्रकार है ह्न तातें आगमज्ञान अरु तत्त्वारथसरधान । संजम भाव इकत्र जब तबहिं मोखमग जान ।।३४ ।। इसलिए आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयमभाव ह्न इन तीनों की एकता को मोक्षमार्ग जानना चाहिए। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न "आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि मुनिपना अथवा संयमीपना गाथा २३६ १४५ आत्मा के श्रद्धा-ज्ञान-रमणतापूर्वक ही प्रगट होता है। आत्मा के भान बिना पाँच इन्द्रियों का निरोध, व्रत, तपादि कुछ भी कार्यकारी नहीं है। संयोग व राग से रहित अरागी आत्मतत्त्व की आगमपूर्वक श्रद्धा और रमणता हो तो मुनिपना होता है तू यही मोक्षमार्ग है।' जिन्हें स्व-पर का भेदज्ञान नहीं है, उनके भले ही पाँच इन्द्रिय और विषयादि का संयोग दिखाई नहीं देता हो, छह काय के जीवों की द्रव्य हिंसा भी नहीं दिखाई देती हो, साथ ही शरीर और संयोगादि से कदाचित् निवृत्ति दिखाई देती हो; फिर भी शरीर और विकार के साथ एकत्वबुद्धि करनेवाले जीवों को वास्तव में पाँच इन्द्रिय और विषयों की अभिलाषा का निरोध नहीं है। रागादिभावरूप भावहिंसा का रंचमात्र भी अभाव नहीं होने से उन्हें परभावों से बिल्कुल भी निवृत्ति नहीं है।' _वह कदाचित् निर्दोष आहार लेता हो, पाँच समिति का पालन करता हो, किसी जीव का घात करते हुए दिखाई न भी देता हो; फिर भी वह छहकाय के जीवों का घाती है; क्योंकि शरीर और पुण्य-पाप से रहित मेरा आत्मा ज्ञाता-दृष्टा है ह ऐसा न मानकर वह निज चैतन्य प्राणों का घात करता है। इसप्रकार आगम का ज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान और अंतरस्थिरता इन तीनों के युगपत्पने से ही मोक्षमार्ग होने का नियम है।" उक्त गाथा का सार मात्र इतना ही है कि जिस श्रमण को स्याद्वादमयी आगम के अभ्यास और आत्मानुभूतिपूर्वक आत्मज्ञान नहीं है; वह श्रमण भले ही जिनागमानुसार आचरण करे, व्रतादि का पालन करे, उपवासादि तपश्चरण करे; तथापि उसके संयम होना संभव नहीं है, सम्यक्चारित्र होना संभव नहीं है और इन तीनों की एकता बिना मोक्षमार्ग नहीं हो सकता; अत: उक्त श्रमण के मोक्षमार्ग नहीं होने से श्रामण्य भी नहीं है। . १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ-२०७ ३. वही, पृष्ठ-२११ २. वही, पृष्ठ २१० ४. वही, पृष्ठ २१३
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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