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________________ गाथा २३४ प्रवचनसार गाथा २३४ विगत गाथा में उक्त तथ्य को प्रस्तुत करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह कहने जा रहे हैं कि सर्वतो चक्षु (सिद्ध भगवान) बनने के लिए आगमचक्षु होना अनिवार्य है। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि । देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खु ।।२३४।। (हरिगीत) साधु आगमचक्षु इन्द्रियचक्षु तो सब लोक है। देव अवधिचक्षु अर सर्वात्मचक्षु सिद्ध हैं।॥२३४|| साधु आगमचक्षु होते हैं, सर्वप्राणी इन्द्रियचक्षुवाले हैं, देव अवधिचक्षु हैं और सिद्ध भगवान सर्वत:चक्षु हैं। इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न ___“प्रथम तो इस लोक में शुद्धज्ञानमय होने से सिद्ध भगवान ही सर्वत:चक्षु हैं; शेष सभी जीव इन्द्रियचक्षु हैं; क्योंकि उन सभी की दृष्टि तो मूर्त पदार्थों में ही लग रही है। देवगण सूक्ष्म मूर्त द्रव्यों को देखते-जानते हैं; इसलिए अवधि चक्षु कहे जाते हैं; तथापि वे मूर्त द्रव्यों को ही देखतेजानते हैं, इसलिए एक प्रकार से इन्द्रियचक्षु ही हैं। इसप्रकार ये सभी संसारी जीव मोह से उपहत ज्ञेयनिष्ठ होने से ज्ञाननिष्ठ शुद्धात्मसंवेदन से सधनेवाले सर्वत:चक्षु नहीं हो सकते। उक्त सर्वत:चक्षु बनने के लिए ही श्रमण आगमचक्षु होते हैं। ज्ञान में ज्ञेयों के ज्ञात होने से ज्ञान और ज्ञेयों में जो सम्मिलन हुआ है; उसके कारण यद्यपि उनमें भेद करना सहज नहीं है, अशक्य जैसा ही है; तथापि वे श्रमण आगमचक्षुसेस्वपरविभाग करके महामोह को भेदते हुए परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर ज्ञाननिष्ठ ही रहते हैं। अत: मुमुक्षुओं को सबकुछ आगमचक्षु से ही देखना चाहिए।" इस गाथा की टीका में आचार्य जयसेन ने विशेष कुछ नहीं कहा है। इसीप्रकार कविवर वन्दावनदासजी और देवीदासजी के कथनों में भी कोई उल्लेखनीय बात नहीं है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न ___ “यहाँ सर्वतः चक्षुपना अर्थात् केवलज्ञान प्रगट करने हेतु भगवान ने मुनिराज को आगमचक्षु कहा है। शरीर व विकार पर है तथा आत्मा ज्ञानस्वरूप है ह्र ऐसे भान सहित जिन्हें स्वरूप में विशेष अन्तर स्थिरता बढ़ी है ह्र ऐसे भावलिंगी मुनियों को असंख्यप्रदेशी केवलज्ञान प्रगट करने के लिए आगमचक्षु कहा है। वे संत सर्वप्रथम ज्ञानचक्षु से स्व-पर का विभाग करके महामोह का नाश करते हैं तथा ज्ञाननिष्ठ आत्मा को स्व और शुभाशुभभावों को ज्ञेयरूप जानते हैं। ज्ञेय ज्ञान में जानने में न आयें ह्र ऐसा होना असंभव है; अतः आगमचक्षु से स्व-पर का विभाग करके महामोह का जिन्होंने नाश किया है ह ऐसे मुनिराज परमात्मस्वरूप को पाने के लिए ज्ञानस्वभाव के सन्मुख रहते हैं। यही मोक्षमार्ग और मोक्ष का साधन है।' साधारण जीवों की दृष्टि मूर्त पदार्थों पर ही होती है। वे इन्द्रियों से ही देखते हैं; किन्तु अतीन्द्रिय चैतन्यस्वभाव को नहीं देखते और चैतन्य को जाने बिना स्व-पर का भेदविज्ञान नहीं हो सकता। ___ मुनिराज आगमचक्षु से महाव्रतादि भावों को ज्ञेयरूप और आत्मा को ज्ञानरूप जानते हैं। शरीर में रोग हो, विकार हो अथवा क्रोध उत्पन्न हो तो उसे स्वप्न के समान जानकर शरीर की अवस्था जानते हैं । शरीर व विकार को अपना नहीं मानते; किन्तु उसको जानें ही नहीं ह्र ऐसा नहीं हो सकता; क्योंकि ज्ञान स्व-पर प्रकाशक स्वभावी है। ज्ञान अपने स्व १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-१९७ २. वही, पृष्ठ-१९७ ३. वही, पृष्ठ-१९८
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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