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________________ १३० प्रवचनसार अनुशीलन एकाग्रता को प्राप्त पुरुष श्रमण होते हैं और एकाग्रता पदार्थों के निश्चय करनेवाले को ही होती है तथा पदार्थों का निश्चय आगम द्वारा होता है; इसलिए आगम का अभ्यास ही ज्येष्ठ है, श्रेष्ठ है, मुख्य है। उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने इसप्रकार स्पष्ट किया गया है ह्न "एकाग्रता को प्राप्त व्यक्ति ही श्रमण होता है और एकाग्रता पदार्थों का निश्चय करनेवाले व्यक्ति को ही होती है। पदार्थों का निश्चय आगम द्वारा ही होता है; इसलिए आगम का अध्ययन ही प्रधान है; क्योंकि अन्य कोई गति (उपाय) नहीं है। ___ वस्तुत: बात यह है कि आगम के अभ्यास बिना पदार्थों का निश्चय (निर्णय) नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह आगम ही त्रिकाल उत्पादव्यय-ध्रौव्यरूप तीन लक्षण वाले समस्त पदार्थों के सम्यक् ज्ञान द्वारा सुस्थित है, अंतरंग से गंभीर है। दूसरी बात यह है कि पदार्थों के निश्चय विना एकाग्रता सिद्ध नहीं होती; क्योंकि जिसे पदार्थों का निश्चय नहीं है; वह कभी तो पदार्थों के निश्चय करने की इच्छा से आन्दोलित होता हुआ चंचल और व्याकुल रहता है, कभी पर में कुछ करने की इच्छारूप ज्वर के परवश होता हुआ समस्त पदार्थों को स्वयं सर्जन की इच्छा करता हुआ विश्व व्यापाररूप परिणमित होने से प्रतिक्षण क्षुब्ध रहता है और कभी भोगने की इच्छा से भावित होता हुआ विश्व को स्वयं भोगरूप ग्रहण करके राग-द्वेषरूप कलुषित चितवृत्ति के कारण वस्तुओं के इष्ट-अनिष्ट विभाग द्वारा द्वैत प्रवर्तित करता हुआ प्रत्येक वस्तुरूप परिणमित होने से अत्यन्त अस्थिरता को प्राप्त होता है; इसलिए उस अनिश्चयी जीव के कृतनिश्चय, निष्क्रिय और निर्भोग अर्थात् युगपद विश्व को पी जाने पर भी विश्वरूप न होनेवाले उस एक निर्भोग आत्मा को नहीं देखने से निरन्तर व्यग्रता ही रहती है, एकाग्रता नहीं होती। गाथा २३२ १३१ और एकाग्रता के बिना श्रामण्य सिद्ध नहीं होता; क्योंकि जिसके एकाग्रता नहीं है, वह पुरुष 'यह अनेक ही हैं' ह्न ऐसा श्रद्धान करता हुआ इसप्रकार के विश्वास से आग्रही, इसीप्रकार की ज्ञानानन्दानुभूति से भावित और इसीप्रकार के विकल्प से खण्डित चित्त सहित सतत प्रवृत्त होता हुआ इसप्रकार के चारित्र से दुःस्थित होता है; इसलिए उसे एक आत्मा की प्रतीति, अनुभूति और प्रवृत्तिरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप से प्रवर्तमान दृशि-ज्ञप्ति-वृत्तिरूप एकाग्रता नहीं होने से शुद्धात्मतत्त्व में प्रवृत्तिरूप श्रामण्य ही नहीं होता। ___ अत: मोक्षमार्गरूप श्रामण्य की सिद्धि के लिए मुमुक्षुओं को भगवान श्री अरहंत सर्वज्ञकथित अनेकान्तमयी शब्दब्रह्म में निष्णात होना चाहिए।" प्रश्न - गाथा और टीका में अकेले आगम के अभ्यास की ही प्रेरणा दी गई है; तो क्या पदार्थों का निश्चय करने के लिए परमागम के अभ्यास की आवश्यकता नहीं है ? उत्तर - अरे भाई! परमागम भी आगम का ही अंग है; अतः आगम कहने पर उसमें अध्यात्म का प्रतिपादक परमागम भी समाहित हो जाता है। हो सकता है कि आचार्य जयसेन के सामने भी इसप्रकार का प्रश्न उपस्थित हुआ हो; यही कारण है कि यद्यपि वे इस गाथा के भाव को तात्पर्यवृत्ति टीका में अत्यन्त संक्षेप में स्पष्ट करते हैं; तथापि यह स्पष्ट करना नहीं भूलते कि पदार्थों का निश्चय न केवल जीव और कर्मों के भेदों का प्रतिपादन करनेवाले आगम के अभ्यास से ही होता है, अपितु ज्ञानानन्दस्वभावी परमात्मतत्त्व का प्रतिपादन करनेवाले अध्यात्म नामक परमागम से भी होता है; अतः आगम और परमागम ह्न दोनों का अभ्यास करना चाहिए। ___ यद्यपि यह बात सत्य ही है; तथापि यहाँ मुख्यरूप से आगमाभ्यास की ही प्रेरणा दी गई है; क्योंकि आगे चलकर आचार्यदेव स्वयं परमागम के अभ्यास की महिमा स्थापित करते हुए कहेंगे कि आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान निरर्थक है।
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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